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________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल वह सम्पूर्ण ससार में मर्वत्र अवगाढ है-फैला हुआ है। आकाश द्रव्य का क्षेत्र सर्वव्यापी है अर्थात् ससार आकाशमय है। इस अनन्तानन्त आकाशमय समार के मध्य भाग में वाकी पाँच द्रव्य भरे हुए है। ससार के जिस मध्यवर्ती भाग में ये छ द्रव्य है, उस भाग को लोक तथा शेप भाग को, जिसमें केवल आकाश-द्रव्य है, 'अलोक" कहते है। सम्पूर्ण मसार गोलाकार है। अलोक मध्य में पोले गोले की तरह है। आधुनिक विज्ञान ने जैन-विज्ञान कथित इन छ द्रव्यो में से चार-पाकाश, पुद्गल, जीव तथा काल को स्वीकार किया है। उसने धर्म तथा अधर्म के सम्बन्ध में कोई निश्चयात्मक निर्णय नही किया है तथा उपर्युक्त चार स्वीकृत द्रव्यो के सिवाय अन्य किसी द्रव्य १-किमिय भते ! लोएति पवुच्चइ ? पचत्थिकाया, एसण एवतिए लोएति पव्वुच्चइ-तजहा-धम्मत्यिकाए अधम्मत्यिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए। --भगवतीसूत्र १३ ४ १३ २-अनन्तानताकाशवव्यस्य मध्यतिनि (लोक) आकाश पूर्वोक्त पञ्चानाम् (द्रव्यानाम्) समुदायस्तदाधारभूत लोकाकाश चेति षड्द्रव्यसमूहो लोको भवति ।। --प्रवचनसार अ० २ गा० ३६ को तात्पर्यवृत्ति ३-स्वलक्षण हि लोकस्य षडद्रव्यसमवायात्मकत्व, अलोकस्य केवल आकाशात्मकत्वम् । --प्रवचनसार अ० २ गा० ३६ की प्रदीपिकावृत्ति ४-गोयमा। अलोए-झुसिर गोलसठिए पण्णते। -भगवतीसूत्र ११ १० १०
SR No.010273
Book TitleJain Padarth Vigyan me Pudgal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1960
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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