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________________ : 6: प्रमाण व्यवस्था श्राचार्य सिद्धसेन ने ईसा की 3-5 शताब्दी मे जन परम्परा मे प्रमाण०यवस्था का सूत्रपात किया । इससे पूर्व प्रमाणशास्त्र का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नही होता । ज्ञान-मीमासा विषयक प्रचुर वाडमय उपलब्ध था। किन्तु दूसरे दर्शनो के संदर्भ मे जिस प्रमाण-व्यवस्था और प्रमाणशास्त्रीय परिभाषा की अपेक्षा थी उसकी पूर्ति का प्रथम प्रयत्न श्राचार्य सिद्धसेन ने किया। प्रमाण-व्यवस्था के विकास का श्रेय आचार्य अकलक को है। उन्हें जन परम्परा मे प्रमाण-व्यवस्था के विकास का पुरस्कत्ता कहा जा सकता है । ईसा की आठवी शताब्दी मे दो महान् प्राचार्य हुए हैं हरिभद्र और अकलक । हरिभद्र का जन्म-स्थल और कर्मक्षेत्र राजस्थान प्रदेश रहा और अकलक का दक्षिणाचल । हरिभद्र ने अनेकान्त और समन्वय के सूत्रधार के रूप मे और गोल रूप मे प्रमाणशास्त्र के क्षेत्र मे भी कार्य किया। अकलक का मुख्य कर्तृत्व प्रमाणशास्त्र के क्षेत्र मे प्रस्फुटित हुआ। उन्होंने लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, प्रमाण-संग्रह आदि ग्रन्थो के माध्यम से प्रमाण-व्यवस्था की सुदृढ आधारशिला रखी । उसके आधार पर वर्तमान शती तक प्रमाण के प्रासाद खडे होते रहे हैं। वौद्ध, नैयायिक, सांख्य और नशेषिक दर्शन अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार प्रमाणशास्त्रीय अन्य निर्मित कर चुके थे और तविषयक परिभाषाए निर्मित कर रहे थे। अकलक श्रादि श्राचार्यों ने अपनी परिभाषाओ का निर्माण उनके पश्चात् किया। इसलिए उन्होने अपनी परम्परा के साथ-साथ दूसरी परम्पराश्रो का भी उपयोग किया । फलत वे अधिक परिष्कृत और परिमार्जित परिभाषाए प्रस्तुत कर सके। प्रमाण की परिभाषा ____ वाद न्याय के महान् श्राचार्य धर्मकीति ने प्रमाण की यह परिभाषा की है अविसवादी ज्ञान प्रमाण है । नयाथिको ने प्रमाण की परिभाषा इस प्रकार की-जो 1 प्रमाणवात्तिक, 3 प्रमाणमविसवादि शान अर्थनियास्थिति । અવિવાન શાત્રેડમિત્રાયનિવેદ્રના છે
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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