SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 71 ) है। इसका तात्पर्य यह है कि दोनो धर्म एक साथ हैं, किन्तु उनका कथन नहीं किया जा सकता। अस्ति, नास्ति और अवक्त०५ -ये तीन मूल भाग है ' शेष चार भग भागरचना की गणितीय पद्धति से निष्पन्न होते हैं । आगमयुग मे तीन भगो का प्रयोग अधिक मिलता है । सात भगो का प्रयोग भी कुछ निरूपणो से फलित होता है । गौतम ने पूछ। 'भते । विदेशी स्कूध प्रात्मा हैं, अनात्मा है या प्रवक्तव्य ?' ___ महावीर ने कहा गौतम | विदेशी स्कध स्यात् श्रात्मा है, स्यात् अनात्मा है और स्यात् प्रवक्तव्य है ।' गौतम -- 'भते । यह कसे ?' महावीर गौतम । स्व की अपेक्षा वह आत्मा है, पर की अपेक्षा वह अनात्मा है और दोनो की अपेक्षा वह अवक्तव्य है।' प्रश्न की इस शृखला मे चार भाग और फलित होते है 1 विदेशी स्कंध स्यात् श्रात्मा है, स्यात् आत्मा नही है । 2 द्विप्रदेशी कप स्यात् श्रात्मा है, स्यात् अवक्तव्य है। 3 विदेशी स्कध स्यात् आत्मा नही है, स्यात् अवक्तव्य है। सातवा भाग विदेशी स्कध से फलित होता है त्रिप्रदेशी स्कघ स्यात् श्रात्मा है, स्यात् आत्मा नही है, स्यात् अवक्तव्य है। वस्तु भावाभावात्मक है । उस भावाभाव धर्म के आधार पर उक्त सप्तभगी की रचना हुई है। वह सामान्य-विशेषात्मक, नित्यानित्यात्मक, वाघ्यावाच्यात्मक भी है। इनमें से प्रत्येक युगल की सप्तभगिया बनती है। उदाहरणस्वरूप प्रत्येक के तीन-तीन भग प्रस्तुत हैं स्यात् स एव ५८ · कचित् घट सदृश ही है। स्थात् विसश एव घट कथचित् घट विसदृश ही है। स्यात् प्रवक्तव्य एव घट. कथचित् घट अवक्तव्य ही है । 2 स्यात् नित्य एव घट कथ चित् घट नित्य ही है। २यात् अनित्य एव घट कथचित् ५८ अनित्य ही है। स्थात् प्रवक्तव्य एप घट कयचित् घट अवक्तव्य ही है। 9 भगवई 121219।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy