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________________ ( 59 ) अनेकान्त के मूल विभाग दो है प्रमाण और नय । प्रमाण सम्पूर्ण अर्थ का विनिश्चय करता है और नय अर्थ के एक अश का विनिश्चय करता है । स्याद्वाद के द्वारा ज्ञात अखड वस्तु के खड-खड का अध्यवसाय जब हम करते हैं तव न4पद्धति का सहारा लेते है ।10 घडे मे भरे हुए समुद्र के जल को समुद्र भी नही कहा जा सकता और अ-समुद्र भी नहीं कहा जा सकता, किन्तु समुद्राश कहा जा सकता है । वैसे ही प्रमाण से उत्पन्न होने पर भी नय को प्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। और अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। नय अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करता है, दूसरे के पक्ष का खण्डन नही करता, इसीलिए वह नय है । 2 दूसरे के पक्ष का खण्डन करने वाला निरपेक्ष होने के कारण दुर्नय हो जाता है । निरपेक्ष नय विवाद उत्पन्न करता है। सापेक्ष या समुदित नय सवाद उत्पन्न करता है। जसे एक सूत्र मे गु फित रत्न अपनी पृथक्-पृथक सज्ञाओ को मिटाकर रत्नावली की सज्ञा को प्राप्त होते है, वैसे ही पृथक-पृथक् अध्यवसाय वाले नय सापेक्षता के सूत्र मे आबद्ध होकर अनेकान्त की सज्ञा को प्राप्त होते हैं 113 अनेकान्त का मर्मज्ञ नही कहता कि यह नय सत्य है और यह नय मिथ्या है । वह इस वास्तविकता की घोषणा करता है कि निरपेक्ष नय मिथ्या और सापेक्ष नय सत्य है। निक्षेप निक्षेप विशिष्ट २००६-प्रयोग की पद्धति है । एक शब्द अर्थ के अनेक पर्यायो तथा प्रारीपो को अभिव्यक्त करता है । उस अभिव्यक्ति के लिए एक ही शब्द अनेक 10 प्राप्तमीमासा, 106 सधर्मगाव साव्यस्य, साधादविरोधत । स्थावादप्रविभक्तार्यविशेषव्यजको नय ॥ 11 तत्त्वार्यश्लोकवात्तिक, 116 नाय वस्तु न चावस्तु, वस्त्वश कथ्यते यत । नासमुद्र समुद्री वा, समुद्राशी यथोच्यते ॥ 12 सन्मति प्रकरण, 1128 यियवणिज्जसपा स०वराया परवियालणे मोहा । ते उ उ दिसमश्रो विभयह सच्चे व अलिए वा ॥ 13 सन्मति प्रकरण, 1122-25 ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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