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________________ ( 44 ) अनेकान्त की छत्रछाया मे की। प्रमाण-व्यवस्था का विकास होने पर भी अनेकान्त का अवमूल्यन नहीं हुआ, प्रत्युत अविमूल्यन हुआ। भाव और अभाव, एक और अनेक आदि अविनाभाव के नियमो का व्यवस्थित विकास होता गया। भागमयुग मे अनेकान्त के इन नियमो का उपयोग नहीं होता था ऐसा नही मानना चाहिए। ये नियम दर्शनयुग मे खोजे गए ऐमा भी नही है । दोनो युगो के मध्य केवल उपयोग भूमि का अन्तर है। प्रागमयुग मे उन नियमो का उपयोग द्रव्य की मीमासा के लिए होता था और दर्शनयुग मे उनका उपयोग विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तो मे समन्वय स्थापित करने के लिए किया गया। 5 अस्ति नास्ति का अविनाभाव गौतम ने भगवान महावीर से पूछा “भते । क्या अस्तित्व अस्तित्व मे परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व मे परिणत होता है ? भगवान ने कहा 'हा, गौतम । ऐसा ही होता है । 'भते । अस्तित्व अस्तित्व मे और नास्तित्व नास्तित्व मे जो परिणत होता है वह प्रयोग से होता है या स्वभाव से होता है ?' गौतम | वह प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है ।' 'भते । तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व मे परिणत होता है, वैसे ही क्या तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व मे परिणत होता है ? जैसे तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व मे परिणत होता है, वैसे ही क्या तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व मे परिणत होता है ?' 'हा, गौतम । ऐसा ही होता है ।'11 भगवई, 1/133-135 से सूरण भते । अत्यित्त वित्त परिणमइ ? नत्यित्त नत्यित्त परिणमई ? हता गोयमा | अयित अत्यित्त परिणम । जे ण भते | अयित अस्थित्त परिणमइ, नात्यत्त नत्यित्त परिणमई, त कि पयोगसा ? वीससा ? गोयमा ! पयोगसा वि त, वासमा वि त । जहा ते भते । अत्थित अस्थित्त परिणमई, नायित्त नत्यित परिणमइ ? जहा ते नत्यित्त नत्यित्त परिणमा, तहा ते अत्यित्त अयित परिणम ? हता गोयमा । जहा मे अत्यित्त अत्यित परिणमइ, तहा मे नत्थित्त नात्यत्त परिणाम | जहा मे नत्यित्त नयित परिणमई, तहा मे अत्थित्त अयित्त परिणम । 11
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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