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________________ ( 39 ) जितना अनित्य है उतना ही आत्मिक जगत् अनित्य है । नित्यत्व और अनित्यत्व को विभक्त नहीं किया जा सकता। नित्य को अनित्य मे विभक्त मानने के कारण माल्य दर्शन ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया बन्च और मोक्ष प्रकृति के होता है । पुरु५ के -4 और मोक्ष नहीं होता। वह नित्य-शुद्ध है। पुरु५ के वध और મોલ મનને ઘર સે પરિણામ પર ઐનિત્ય માનના પડતા ઢોર ચહ વસે ફક્ટ નહી था, इसलिए पु०५ को बच-मोक्ष से परे माना। आचार्य पुन्दकुन्द ने भी यह निरूपित किया है कि जीव कर्म का कर्ता नही है। कर्म कर्म का करता है। यदि जीव कर्म का कर्ता हो तो वह कर्मसे कभी मुक्त नही हो सकता । वह कर्म का पता नहीं है इसीलिए कम से मुक्त होता है । शुद्ध द्रव्याथिक नय की दृष्टि में यह मत्य है कि जिसका जो स्वभाव होता है वह कभी नहीं बदलता । चेतन का अपना विशिष्ट स्वभाव है पैतन्य । वह कभी विनष्ट नहीं होता । उ441 काम है-अपनी अनुभूति । फिर वह विजातीय कर्म का का कसे हो सकता है ? यह शुद्ध द्रव्यायिक या कोपाधि-निरपेक्ष नय है । इस नय मे पास्य दर्शन के प्रकृति के बन्च मोक्ष वाले सिद्धान्त का समर्थन किया जा सकता है । जैन परिमापा में कहा जा सकता है कमगरीर के ही 4 और मोक्ष होता है । अशुद्ध द्रव्यायिक नय इन विकल्प को स्वीकृति देता है कि जीव कर्म का कर्ता है।' द्रव्यायिक न4 सामान्यग्राही है । जहा सामान्य का विकल्प मुख्य होता है वहा पर्याय गौर हो जाता है । नित्यत्व इसीलिए मत्य है कि वस्तु है और वह मदा है । यह नि.तरता इसीलिए चल रही है कि वस्तु मे दीर्घकाल तक रहने का गुण है । जहा हम वस्तु के समान अशो का निर्णय करते है पहा एकता, सामान्य और द्रव्यत्व की दृष्टि फलित होती है। उत्पाद और व्यय का क्रम निस्तर चल रहा है । हम कसे कह सकते है कि यह वही पर्वत है ? यह वही मनुष्य है ? यह वही भवन है जो दस वर्ष पहले हमने वृहद् नयचर 191 5 कामास मज्माद जीव जो गह सिद्धसकास । भण्इ नो सुद्धको खलु कामोवाहिणि रक्खो॥ वृहद नयचर 194 भावे सरायमादी स०वे जीवाम्म जो दु जपदि । मो हु असुद्धो उत्तो कम्मापोवाहिरिणखो ॥ वृहद् नयच+ 192 . उप्पादवय किया जो गह केला सत्ता। भण्ा सो सुदणी इह सत्तागाहियो समये ।। 6
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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