SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 33 ) 5 क्या श्रागमयुग के पूर्व भी किसी दर्शनयुग की स्थिति को स्वीकृति दी जा सकती है । अथवा नही ? क्या कोई दर्शन-विहीन युग भी था ? ___ आगमयुग और दर्शनयुग यह विभाजन भी एक नय की अपेक्षा से है । आगमयुग को या उससे पहले के युग को दर्शनयुग कह सकते है । वस्तुत आगमयुग और दर्शनयुग मे कोई भेद नहीं है । आप्त-पुरु५, अतीन्द्रिय-ज्ञान और निरीक्षण की प्रधानता होती वही वास्तव मे दर्शनयुग है और वही आगमयुग है । ईसा पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी मे दर्शन के क्षेत्र मे तर्क का प्राधान्य हो गया, उस नय की अपेक्षा से दर्शनयुग और आगमयुग का विभाजन किया गया है। निर्विकल्पनानुभूति या अपरोक्षानुभूति ही वस्तुत दर्शन है । वर्तमान मे उसकी परिभाषा बदल गई । आज हम निर्विकल्पनानुभूति या अपरोक्षानुभूति को दर्शन नही मानते । किन्तु सविकल्पशान, तर्क या हेतु के प्रयोग को दर्शन मानने लग गए हैं। इसी आधार पर प्रस्तुत विभाजन का औचित्य सिद्ध होता है। ऐतिहासिक काल मे दर्शन युग का प्रारम्भ भगवान पार के अस्तित्व-काल या उपनिषद्-काल (ईसा पूर्व 8 वी शती) से प्रारंभ होता है। 6 सापेक्षवाद का प्रयोग सर्वत्र होता है या कही-कही ? यदि सर्वत्र होता है तो क्या आप हिंसा को भी सापेक्ष मानते है ? हिसा है भी और नही भी यह मानते हैं ? हिंसा भी निरपेक्ष नही है। उसकी व्याख्या अनेक नयो से की जाती है। आचार्य हरिभद्र ने इस प्रश्न की अनेक नयो से समीक्षा की है ।34 हिंसा प्रमाद-सापेक्ष है । प्रमाद है तो हिंसा है । यदि प्रमाद नही है तो हिंसा भी नही है ।35 7 क्या सत्य भी इष्टि-सापेक्ष होता है ? यदि हा तो वह सार्वभौम नही हो सकता। द्रव्य मे विरोधी प्रतीत होने वाले स्वाभाविक पर्यायो मे वस्तुत कोई विरोध नही है । इसकी स्थापना के लिए सापेक्षवाद का सहारा लिया जाता है। द्रव्य के सापेक्षिक पर्यायो तथा विभिन्न सबधो की व्याख्या के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है। द्रव्य सत्य है और पर्याय भी सत्य है । द्रव्य का मौलिक स्वरूप निरपेक्ष है, किन्तु उसके पर्याय और सवध निरपेक्ष नहीं है। निरपेक्ष-सत्य की व्याख्या निरपेक्षष्टि से और सापेक्ष-सत्य की व्याख्या सापेक्षष्टि में की जाती है । अस्तित्व की दृष्टि से सत्य सार्वभौम हो सकता है । शे५ पर्यायो की दृष्टि से वह नियत भूमि वाला ही होगा। 34 हिंसाफलाष्टकप्रकरणम्, 1-8 । 35 भगवई, 1/33, 34 ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy