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________________ ( 28 ) सकते । इस दृष्टि से यह अनिर्वचीय है, किन्तु जिन धर्मों का निर्वचन किया जाता है, उनकी दृष्टि से वह निर्वचनीय भी है । यह व्यारया उन्होने स्थावाद के आधार पर की। 'अस्ति रक्तो घट' घडा लाल है इस वाक्य मे वर्ग के द्वारा वट की व्याख्या की गई है। घट केवल वात्मक नही है । उसमे रम, गन्च, स्पर्श आदि अन्य अनेक धर्म विद्यमान है । हम एक धर्म के द्वारा उसकी व्याख्या करते है तब शेप धर्मों को उमसे पृथक नही कर सकते और युगपत् मब धर्मों को कह मक, ऐसा कोई उपाय नही है । इस निरुपायता की समस्या को सुलझाने के लिए 'स्यात्' शब्द का श्राविकार किया गया । स्यावाद के अनुसार यह नहीं कहा जा सकता 'अस्ति रक्तो ५८ , किन्तु यह कहना वास्तविक होगा कि 'स्याद् अस्ति रक्तो घर' सापेक्षता की दृष्टि से घडा लाल है । 'स्यात्' शब्द का प्रयोग इस वास्तविकता का सूचक है कि आप घट रक्तवर्ण को मुख्य मानकर घट का निर्वचन कर रहे है और ५ धर्मो को गोरा बनाकर उपेक्षित कर रहे हैं, किन्तु उन्हें अस्वीकार नहीं कर रहे हैं । thवर्ण को घट के शेष धर्मो से विभक्त नहीं कर रहे, किन्तु उसका निर्वचन करते हुए भी घट की ममता का वोध कर रहे हैं । 'स्थाद् अस्ति ५८' इसमे 'अस्ति' धर्म ५८ के ५ धर्मो से विच्छिन्न नही हैं उसके विच्छिन्न होने पर घट का घटत्व भी समाप्त हो जाता है । एक धर्म की मुख्यता से वस्तु का प्रतिपादन और उसके शेष धर्मो की मीन स्वीकृति यही हमारे पास अखड वस्तु की व्याख्या का एक उपाय है जिसके आधार पर हम वस्तु को अनिर्वचनीय और निर्वचनीय दोनो मान सकते है। हम बहुत बार मापेक्षता के आधार पर केवल एक धर्म का ही प्रतिपादन करते है, एक धर्म के माध्यम से शेष धर्मों के प्रतिपादन का प्रयत्न नही करते । इस व्याख्या-पद्धति मे अनिर्वचनीय जैसा कुछ नही होता । एक धर्म की व्याख्या-पद्धति को 'नय' तथा एक धर्म के माध्यम से अखड वस्तु की व्याख्या-पद्धति को 'स्वादाद' कहा जाता है 125 अखड और खड की व्याख्या की इन दोनो पतियो का विकास अनेकान्त-व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण प्रतिफलन है । समन्वय के प्रायाम वार, नैयायिक और मीमासक ये सब अपने-अपने सिद्धान्त का समर्थन और दूसरो के सिद्धान्तो का निरसन कर रहे थे। इस पद्धति मे तीन न्याय और कटूक्तिपूर्ण आक्षेप प्रयुक्त हो रहे थे । अहिंसाप्रिय जनो को यह पद्धति रूचिकर नही लग रही थी। वे इस भागम-वाणी से प्रभावित थे जो अपने सिद्धान्त की प्रासा और दूसरो के सिद्धान्तो की निन्दा करते हैं वे समस्या का समाधान नही 25 न्यायावतार, लोक 30 नयानामनिठाना, प्रवृत्त. श्रुतवमनि । નપૂર્ણવિનિઃશ્વામિ, સ્થાવાવ,તમુખ્યતે |
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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