SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 25 ) नदी सूत्र मे भी अनुयोगद्वारगत प्रत्यक्ष विषयक परपरा का अनुसरण हुआ है । इन दो ही आगमो मे इन्द्रियमान को प्रत्यक्ष की कोटि मे रखा गया है । अनुयोगद्वार का रचनाकाल ईसा की पहली शताब्दी और नदी सूत्र का रचनाकाल ईसा की पाचवी शताब्दी है। जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण का अस्तित्व काल ईसा की सातवी शताब्दी है। वे आगमिक ५२५५। के प्रतिनिधि आचार्य थे। उन्होने मात और श्रुतज्ञान के परोक्ष होने का समर्थन किया है किन्तु साथ-साथ उसमें एक नया उन्मेष भी जोडा है। उन्होने प्रतिपादित किया कि अनुमान एकान्तत प्रत्यक्ष हैं । इन्द्रिय ज्ञान और मानस-ज्ञान सव्यवहार प्रत्यक्ष है ।20। साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान है। धूम-दर्शन से जो अग्नि का ज्ञान होता है, वह इन्द्रियो के भी साक्षात् नही होता। इसलिए अनुमान ज्ञान एकान्तत परोक्ष है । अवधि आदि से होने वाला अर्थ का ज्ञान साक्षात् होता है, उसमे किसी माध्यम की अपेक्षा नही होती, इसलिए वह एकान्तत प्रत्यक्ष है। इन्द्रियो से जो स्पर्श श्रादि विषयो का ज्ञान होता है वह इन्द्रिय साक्षात्कार है। प्रत वह इन्द्रिय के लिए प्रत्यक्ष है और आत्मा के लिए वह परोक्ष है । इन्द्रिया स्वय अचेतन हैं। उन्हे विषयो का ज्ञान नहीं होता । वे जान के माध्यममात्र हैं। इस दृष्टि से यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि इन्द्रियज्ञान व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है और पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है ।। । ज्ञाता-ज्ञय--पारमार्थिक प्रत्यक्ष । साता- इन्द्रिय ज्ञय-साव्यवहारिक प्रत्यक्ष । (इस प्रकार मे जय शाता के लिए परोक्ष और इन्द्रिय के लिए प्रत्यक्ष होता है ।) * ज्ञाता- मन धूम- अग्नि केवल परोक्ष। इन्द्रियज्ञान को साव्यवहारिक कोटि के प्रत्यक्ष की स्वीकृति ने सपर्क सूत्र का काम किया। जैन प्रामाणिको तथा अन्य प्रामाणिको के बीच प्रत्यक्ष विषयक जो समस्या थी उसका समाधान हो गया। प्रमाण-व्यवस्था के युग में भी साव्यवहारिक 20 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 95 एगते। परोक्ख लिगियमोहाइय च पचक्ख । इ दियमणोभव ज त सबवहार५च्चक्ख ॥ 21 विशेषावश्यकभाष्य, गाया 95, स्वीपशवृत्ति यत् पुन साक्षादिन्द्रियमनोनिमित्त तत् तेषामेव प्रत्यक्षम्, अलिङ्गत्वात्, आत्मनोऽवच्यादिवत्, न त्वात्मन , अात्मनस्तु तत् परोक्षमेव पर निमित्तत्वात् अनुमानवत् इत्युक्तम् । तेषामपि च तत् सव्यवहारत एव तत्प्रत्यक्षम्, न परमार्यत । कस्मात् ? अचेतनत्वात, पटवत्, इत्युक्तम् ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy