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________________ ( 15 ) उदाहरण के द्वारा समझाया है। जैसे एक पौकी २० मे दबी हुई है । उसका एक कोना दिखाई दे रहा है । वह एक स्वतन्त्र वस्तु प्रतीत हो रही है। इसी प्रकार वालू के हटने पर दूसरा, तीसरा और चौथा कोना दिखाई दे तो चार वस्तुए प्रतीत होने लग जाती है। बालू पूरी चौकी पर से हट जाती है तो एक अखड चौकी प्रतीत होती है। इसी प्रकार इन्द्रियो की खिड़की से देखकर हम कहते हैं यह इन्द्रियशान है । मस्तिक के माध्यम से चिन्तन करते है तब हम कह सकते है यह मनोजान है माध्यमो से हम जान को वाट देते हैं। जव पूरा आवरण हट जाता है तव सारे विभाजन समाप्त हो जाते है । तब केवल ज्ञान शेष रहता है, निपाधिकशान, शुद्धमान, सहजनान । केवलमान का एक अर्थ होता है कोरा जान । इस भूमिका मे सवेदन समाप्त हो जाता है। जब तक सवेदन होता है तब तक शुद्ध जान नहीं होता, केवल ज्ञान नही होता । शुद्ध चैतन्य का अनुभव होने की स्थिति मे शान "ध्यान बन जाता है और शुद्ध पतन्य का पूर्ण उदय होने पर ध्यान केवल जान बन जाता है। 4 जन-न्याय मे ज्ञान को पर-प्रकाशी ही माना गया है या स्व-प्रकाशी भी ? जान स्व-पर-प्रकाशी है जो स्व-प्रकाशी नही होता वह पर-प्रकाशी भी नहीं हो सकता, जैसे-घट । जो प्रमेय अचेतन होता है वही दूसरो के द्वारा प्रकाशित होता है । जान यदि पर-प्रकाशी हो और स्व-प्रकाशी न हो तो उसे जानने के लिए दूसरे ज्ञान की अपेक्षा होगी। फिर तीसरे मान की। इस शृखला का कही अन्त नही होगा। अनवस्था कभी नही टूटेगी। सूर्य को देखने के लिए दूसरे सूर्य की अपेक्षा नहीं है क्योकि वह स्व-प्रकाशी भी है इस प्रकार जान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की अपेक्षा नही है क्योकि वह स्व-प्रकाशी भी है। 5 क्या अतीन्द्रिय शान सर्वसम्मत है ? क्या हेतु के द्वारा उसे सिद्ध किया जा सकता है ? जन दर्शन ने अतीन्द्रियज्ञान को स्वीकृति दी है। साख्य, वौद्ध, न्याय, शेषिक, मीमासक श्रादि दर्शनो ने भी उसे मान्यता दी है। इस स्वीकृति मे एक अन्तर है। मीमासक मनुष्य को अतीन्द्रियज्ञानी नही मानते । न्याय और शेषिक दर्शन भी मनुष्य के ज्ञान को ईश्वरीय नान से प्रकाशित मानते हैं । जन दर्शन के अनुसार मनुष्य अतीन्द्रियशानी हो सकता है । अमूर्त पदार्य और अतीन्द्रियज्ञान दोनो हेतु की सीमा मे नही आते । हेतु का प्राधार है व्याप्ति और व्याप्ति का आधार है इन्द्रियज्ञान और मानसशान । जो पुरुष अपने ध्यान-बल से अतीन्द्रियशान प्राप्त कर चुके हैं, उनकी वाणी पर हम विश्वास करते हैं, तभी हम कहते है कि अतीन्द्रियनान होता है । वह शान
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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