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________________ ( 8 ) 2 दर्शनयुग का जैन-न्याय । 3 प्रमाण-व्यवस्थायुग का जैन-न्याय । महावीर का अस्तित्व काल ई० पू० 599-527 है। उस समय से ईसा की पहली राती तक का युग आगमयुग है। ईसा की दूसरी शती से दर्शनयुग का प्रारम्भ होता है । ईसा की प्रा०वी-नीती राती से प्रमाण-व्यवस्यायुग का प्रारम्भ होता है। प्रागमयुग का जन न्याय भागमयुग के न्याय मे ज्ञान और दर्शन की विशद चर्चा प्राप्त है। श्रावृत चेतना के दो रूप होते है लब्धि और उपयोग । ज्ञेय को जानने की क्षमता का विकास लान है और जानने की प्रवृति का नाम उपयोग है । उपयोग दो प्रकार का होता है साकार और अनाकार । आकार का अर्थ है विकल्प 17 आकार सहित चेतना का व्यापार 'साकार' (सविकल्प) उपयोग कहलाता है। इसे ज्ञान कहा जाता है । प्राकार रहित चेतना का व्यापार 'अनाकार' उपयोग कहलाता है। इसे दर्शन कहा जाता है। जन भागमो मे सविकल्प और निविकल्प शदी का प्रयोग नहीं मिलता। साकार और अनाकार का प्रयोग बहुत प्राचीन है । साकार और सविकल्प तया अनाकार और निविकल्प मे अर्थ-भेद नही है । दर्शन घेतना निविकल्प और नानचेतना सविकल्प होती है । जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान है । प्रात्मा ज्ञाता है । वह ज्ञान के द्वारा ज्ञय को जानता है । ज्ञान उसका गुण है । आत्मा और शान मे गुणी और गुण का सम्बन्ध है। पुरा गुरपी से सर्वथा अभिन्न नही होता और सर्वथा भिन्न भी नहीं होता । श्रात्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण है इस विवक्षा से वह आत्मा से कचिद् भिन्न है। ज्ञान प्रात्मा के ही होता है इस विवक्षा से वह आत्मा से कथाचिद् अभिन्न है। ज्ञान के पाच प्रकार है। 1. मति 2 श्रुत 3 अवधि 4 मन पर्यव 5 केवल मति और श्रत ये दो इन्द्रियज्ञान और शेष तीन अतीन्द्रियज्ञान है। ___17 तत्वार्यवात्तिक, 1/12 __ आकारी विकल्प ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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