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________________ ईसा की सोलहवी गती के सुप्रसिद्ध दार्शनिक फासिस बेकन (Francis Bacon) ने इन्द्रियानुभव के सिद्धान्त को सर्वोपरि महत्व दिया और अतीन्द्रिय परमार्थ को असत्य एव काल्पनिक बतलाया। उनके मतानुसार जो इन्द्रियानुभूत नही है वह ययार्य नहीं है, जो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष नही है वह सत्य नही है । इन्द्रियवादी दार्शनिको ने भी प्रज्ञा को स्वीकृति दी है। वेकन के अनुसार केवल इन्द्रियानुभव पर्याप्त नहीं है, आगमनात्मक तर्क भी श्रावश्यक है। सर्वप्रथम हम इन्द्रियानुभव के द्वारा घटनाप्रो और तथ्यो का सकलन करें, फिर उनका विश्लेषण करें । विश्लेषण मे प्राप्त तुलना और विरोध के आधार पर सामान्य नियम (व्याप्ति) या हेतु की खोज करें। इस प्रकार वेकन ने प्रत्यक्षवाद और प्रज्ञावाद का समन्वय किया है। इन्द्रिय-जान, मानसिक-जान और प्रज्ञा ये तीनो गरी राधिष्ठान की सीमा मे आते हैं । इन्द्रिय-जान का उपकरण मस्तिक तथा शरीरगत इन्द्रिय अधिष्ठान है। मन और प्रजा का उपकरण मस्तिष्क है। भारतीय चिन्तको ने इस शरीरनिमित्तक ज्ञान से भागे भी प्रस्थान किया। उनके प्रस्थान का सार यह है इन्द्रिय, मन और प्रजा से परे भी जान है । वह प्रस्थान न बौद्धिक था और न ताकिक । उसका अनुभव योगिक अभ्यास के द्वारा प्राप्त था । उन्होने निविकल्प सावना का अभ्यास किया, जहा इन्द्रिय समाप्त, मन समाप्त, बुद्धि और तर्क समाप्त, विकल्पमात्र समाप्त हो जाते हैं । उस निर्विकल्प भूमिका मे उन्हे साक्षात् अनुभव हुआ, तब उन्होने अतीन्द्रिय-ज्ञान को स्वीकृति दी। वह मान इन्द्रियातीत, मनातीत और प्रजातीत है। उसमे शरीर का कोई उपकरण सहयोग नही करता या शरीर के किसी भी उपकरण की सहायता अपेक्षित नहीं होती। इस अतीन्द्रिय-ज्ञान की स्वीकृति ने आगम प्रमाण की स्वीकृति दी। प्रागम का अर्थ है अतीन्द्रियमान की स्वीकृति । यदि अतीन्द्रियज्ञान की स्वीकृति नहीं होती तो श्रागम का प्रामाण्य प्रमाण की शृखला मे नही जुडता । प्राचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जिसे इन्द्रियातीत-ज्ञान प्राप्त होता है वह सम्पूर्ण सत्य को जान लेता है, देख लेता है । भारतीय दर्शनो ने अतीन्द्रियशान को किसी-न-किसी रूप में मान्यता दी है। जैन और वौद्ध दार्शनिको ने पुरुष मे अतीन्द्रियज्ञान को स्वीकार किया है । ईश्वरवादी दार्शनिको ने ईश्वर को अतीन्द्रियजानी माना है। साख्य, नैयायिक, वैशेपिक और मीमासक ये सभी दर्शन 'श्रागम' को प्रमाण मानते हैं । जैन दर्शन के अनुसार परोक्ष प्रमाण के पाच प्रकार हैं। उनमे 4 प्रवचनसार, 29 , जागादि पस्सदि णियद, अक्खातीदो जगमसेस ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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