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________________ ( 131 ) विम्बित हो जाते । जैन वाई मय मे हजारो वर्ष पहले वनस्पति आदि के विषय में ऐसे अनेक तथ्य निरूपित हैं, जो ध्यान की विशिष्ट भूमिकामो मे उपलब्ध हुए थे । सूक्ष्म निरीक्षण की पद्धति को विकसित करने के लिए कर्मशास्त्रीय अध्ययन भी बहुत मूल्यवान है। हमारे पौद्गलिक शरीर (Physical body) के भीतर एक कर्म-शरीर (Karmic body) है। वह सूक्ष्म है । उसकी क्रियाए स्थूल शरीर मे प्रतिक्रिया के रूप मे प्रगट होती हैं । कर्म-शरीर के बिम्बो के निरीक्षण की क्षमता प्राप्त कर हम स्थूल शरीर के प्रतिबिम्बो की सूक्ष्मतम व्याख्या कर सकते है और उनके कार्य-कारण-भाव का निर्धारण भी कर सकते हैं । मन की विभिन्न प्रवृत्तियो, उसकी पृष्ठभूमि मे रही हुई चेतना के विभिन्न परिवर्तनो और चेतना को प्रभावित करने वाले वाहरी तत्वो का अध्ययन कर हम निरीक्षण की क्षमता को नया आयाम दे सकते हैं। इस समन्वित अध्ययन की परम्परा को गतिशील बनाने के लिए दार्शनिक को केवल तर्कशास्त्री होना पर्याप्त नहीं है। उस साधक भी होना होगा। उसे चित्त का निर्मलता भी अजित करनी होगी। बहुत सारे वैज्ञानिक भी साधक होते हैं और वे तपस्वी जैसा निर्मल जीवन जीते हैं जो सत्य की खोज में निरत होते हैं उनके मन मे कलुषताए नही रहती और यदि वे रहती हैं तो पग-पग पर बाधाए उपस्थित करती हैं । सत्य की खोज के लिए निरीक्षण-पद्धति का विकास आवश्यक है और उसके विकास के लिए चित्त की निर्मलता और एकाग्रता आवश्यक है। आज के वैज्ञानिक वातावरण मे निरीक्षण के द्वारा उपलब्ध प्रमेयो का परीक्षण भी होना चाहिए । विज्ञान को दर्शन का उत्तराधिकारी मिला है, अत दर्शन और विज्ञान मे दूरी का अनुभव क्यो होना चाहिए ? निरीक्षण के पश्चात् परीक्षण और फिर तर्क का उपयोग - इस प्रकार तीनो पद्धतियो का समन्वित प्रयोग हो तो दर्शन पुन प्राणवान होकर अपने पितृस्थान को प्रतिष्ठापित कर सकता है । इस भूमिका में न्य,यशास्त्र या प्रमाणशास्त्र का भी उचित मूल्याकन हो सकेगा।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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