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________________ ( 129 ) वस्तु को देखा जा सकता है। विप्रकृष्ट (दूरस्थ) को जानने के लिए दूरवीक्षण, लिस्को५ श्रादि यत्रो का विकास हुआ है । जिस अतीन्द्रियज्ञान के द्वारा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थ जाने जाते थे, वह आत्मिक अतीन्द्रियज्ञान वैज्ञानिको को उपलब्ध नहीं है किन्तु उन्होंने उन तीनो प्रकार के पदार्थों को जानने के लिए अपेक्षित यात्रिक उपकरण (सूक्ष्मदृष्टि, पारदर्शीष्टि और दूरदष्टि) विकसित कर लिए हैं । दार्शनिक के लिए ये तीनो बातें आवश्यक हैं । दार्शनिक वह हो सकता है जो इन्द्रियातीत सूक्ष्म, व्यवहित और विकृष्ट तथ्यों को उपलब्ध कर सके । किन्तु दर्शन के क्षेत्र मे आज ऐसी उपलब्धि नहीं हो रही है। मुझे कहना चाहिए कि तर्कपरम्परा ने जहा कुछ अच्छाइया उत्पन्न की हैं, वहा कुछ अवरोध भी उत्पन्न किए है। श्राज हम अतीन्द्रियज्ञान के विषय मे सदिग्ध हो गए हैं। जिन क्षणो मे अतीन्द्रिय-बोध हो सकता है उन क्षणो का अवसर भी हमने खो दिया है । अतीन्द्रियबोध के दो अवसर होते हैं 1 किसी समस्या को हम अवचेतन मत मे आरोपित कर देते हैं । कुछ दिनो के लिए उस समस्या पर अवचेतन मन मे क्रिया होती रहती है। फिर स्वप्न मे हमे उसका समावान मिल जाता है। एक सभावना थी स्वप्नावस्था की, जिसका वीज अर्धजागृत अवस्या में पाया जाता था। उसका प्रयोग भी आज का दार्शनिक नही कर रहा है। 2 दूसरी सभावना थी निर्विकल्प पतन्य के अनुभव की । जीवन मे कोई एक क्षरण ऐसा आता है कि हम विचारशून्यता की स्थिति मे चले जाते हैं । उस क्षण मे कोई नई स्फुरणा होती है, असभावित और अज्ञात तथ्य सभावित और ज्ञात हो जाते हैं। ये दो सभावनायें थी प्राचीन दार्शनिक के सामने । वह उन दोनो का प्रयोग करता था । वर्तमान के वशानिको ने भी यत्र-तत्र इन दोनो सभावनाओ की चर्चा की है । विकल्पशून्य अवस्था मे पेतना के सूक्ष्म स्तर सक्रिय होते हैं और ये सूक्ष्म सत्या के समाधान प्रस्तुत करते हैं। स्वप्नावस्था मे भी स्थूल चेतना निक्रिय हो जाती है । उस समय सूक्ष्म चेतना किसी सूक्ष्म सत्य से सपर्क करा देती है। मैं नहीं मानता कि आज के दार्शनिक मे क्षमता नही है। उसकी क्षमता तर्क के परतो के नीचे छिपी हुई है । वह दार्शनिक की अपेक्षा ताकि अधिक हो गया है । उसके निरीक्षण की क्षमता निष्क्रिय हो गई है । दर्शन की नई सभावनाओ पर विचार करते समय हमे वास्तविकता की विस्मृति नही करनी चाहिए। तक को हम अस्वीकार नही कर सकते । दर्शन से उसका सम्बन्धविच्छेद नही कर सकते । पर इस सत्य का अनुभव हम कर सकते हैं कि तर्क का स्थान दूसरा है, निरीक्षण और परीक्षण का स्थान पहला । 'अनुमान' मे विद्यमान 'अनु' शब्द इसका सूचक है कि पहले प्रत्यक्ष और फिर तक का प्रयोग । तर्क-विद्या का एक नाम
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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