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________________ :9 . भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन __परंपरा का योगदान विचार-स्वातंत्र्य की दृष्टि से अनेक परम्परात्री का होना अपेक्षाकृत है और विचार-विकास की दृष्टि से भी वह कम अपेक्षित नही है। भारतीय तत्व-चिन्तन की दो प्रमुख धाराए हैं- श्रमण और वैदिक । दोनो ने सत्य की खोज का प्रयत्न किया है, तत्व-चिन्तन की परम्परा को गतिमान बनाया है। दोनो के वैचारिक विनिमय और सक्रमण से भारतीय प्रमाणशास्त्र का कलेवर उपचित हुआ है। उसमे कुछ सामान्य तत्त्व हैं और कुछ विशिष्ट । जन परम्परा के जो मौलिक और विशिष्ट तत्व है उनकी सक्षिप्त पर्चा यहा प्रस्तुत है । जन मनीषियों ने तत्त्व-चिन्तन मे अनेकान्तष्टि का उपयोग किया । उनका तत्व-चिन्तन स्यावाद की भाषा मे प्रस्तुत हुआ । उसकी दो निष्पत्तिया हुई-सापेक्षता और समन्वय । सापेक्षता का सिद्धान्त यह है एक विराट विश्व को सापेक्षता के द्वारा ही समझा जा सकता है और सापेक्षता के द्वारा ही उसकी व्याख्या की जा सकती है। इस विश्व मे अनेक द्रव्य हैं और प्रत्येक द्रव्य अनन्त पर्यायात्मक है। द्रव्यो मे परस्पर नाना प्रकार के सबंध है। वे एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। अनेक परिस्थितिया हैं और अनेक घटनाए धरित होती हैं। इन सबकी व्याख्या सापेक्ष दृष्टिकोण से किए बिना विमगतिया का परिहार नही किया जा सकता। सापेक्षता का सिद्धान्त समग्रता का सिद्धान्त है। वह समग्रता के सदर्भ मे ही प्रतिपादित होता है । अनन्त धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म का प्रतिपादन किया जाता है तब उसके साथ 'स्यात्' शब्द जुड़ा रहता है। वह इस तथ्य का सूचन करता है कि जिस धर्म का प्रतिपादन किया जा रहा है वह समग्र नहीं है। हम समानता को एक साथ नही जान सकते । हमारा ज्ञान इतना विकसित नही है कि हम समग्रता को एक साथ जान सकें। हम उसे खडो में जानते हैं, किन्तु सापेक्षता का सिद्धान्त खड की पृष्ठभूमि मे रही हुई अखडता से हमे अनिभिज्ञ नही होने देता। निरपेक्ष सत्य की बात करने वाले इस वास्तविकता को भुला देते हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वत्व मे निरपेक्ष है किन्तु सम्वन्धो के परिप्रेक्ष्य मे कोई भी निरपेक्ष नही है।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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