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________________ ( 119 ) दूरी के आधार पर अधोगमन और ऊर्ध्वगमन होता है । दोनो वस्तुए एक-दूसरे को श्राकर्षित करती हैं, गतिमान् बनाती हैं । जिसका द्रव्यमान अधिक होता है वह दूरी के अनुपात मे, कम द्रव्यमान वाली वस्तु को आकर्षित कर लेती है । पृथ्वी का द्रव्यमान फल के द्रव्यमान की अपेक्षा अत्यधिक है, इसलिए वह फल को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है । श्राइस्टीन ने इसमे संशोधन प्रस्तुत किया । उसके अनुसार पदार्थ अपने द्वारा अवगाहित श्राकाशीय क्षेत्र मे वक्ता उत्पन्न करता है । उस वक्रता के श्रावार पर अधोगमन होता है । एक विषय मे जैसे-जैसे सिद्धान्त बदलता है वैसे-वैसे उसके आधार पर निर्मित नियम भी बदल जाते हैं । वर्तमानज्ञान के आधार पर नियमों का निर्धारण होता है । नया ज्ञान उपलब्ध होने पर नियम भी नए बन जाते है | इसलिए अविनाभाव या व्याप्ति की पृष्ठभूमि में कालिक बोध नही होता, कालिक फिर भी हो सकता है । भविष्य की बात भविष्य पर छोड देनी चाहिए । इन्द्रिय और मानसज्ञान की एक निश्चित सीमा है, इसलिए उन पर हम एक सीमा तक ही विश्वास कर सकते है । कालिकबोध प्रतीन्द्रिय-ज्ञान का कार्य है और वह प्रत्यक्ष है, इसलिए वह अनुमान की सीमा से परे है । व्याप्ति और हेतु की सीमा का बोध न्यायशास्त्र के विद्यार्थी के लिए बहुत आवश्यक है । इस बोध के द्वारा हम श्रनिश्चय या सदेह की कारा मे बन्दी नही बनते किन्तु अवास्तविकता को वास्त विकता मानने के अमिनिवेश से मुक्त हो सकते है श्रीर नई उपलब्धियों के प्रति हमारी ग्रहणशीलता प्रवाधित रह सकती है । पश्चिमी दार्शनिक ह्यूम ने कार्य-कारणमूलक क्रमभाव की आलोचना की है । उनके अनुसार कार्य-कारण का सम्बन्ध जाना नही जा सकता । हमे पृथक्पृथक् सवेदनो या विज्ञानो के श्रानन्तर्य सम्बन्ध का अनुभव होता है, उनके आन्तरिक अनिवार्य सम्बन्ध (Causation) का अनुभव नही होता । वस्तुनो मे ऐसा कोई अनिवार्य सम्वन्ध हमे प्रतीत नही होता । हमारे विज्ञानो के आनन्तर्यभाव को, उनकी इस अपेक्षा से कि एक के बाद तुरन्त दूसरा आता है, हम अपने अभ्यास के कारण भ्रमवश एक आन्तरिक और अनिवार्य कार्यकारणभाव नामक सम्बन्ध मान बैठते हैं । विश्व की एकरूपता (Uniformity of Nature) के नियम का हमे अनुभव नही हो सकता । इन्द्रियो के द्वारा हम किसी प्रकार की सार्वभौमिकता या अनिवार्यता के सिद्धान्त पर नही पहुच सकते । ह्य ूम के अनुसार कार्यकारणभाव के अनिवार्य और आवश्यक सम्बन्ध का ज्ञान न प्रत्यक्ष से हो सकता है और न अनुमान से । श्राचार्य हेमचन्द्र ने भी यह प्रश्न उपस्थित किया कि व्याप्ति कैसे जानी जा सकती है ? इस प्रश्न के उत्तर मे उन्होने अपना निर्णय यह दिया कि इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से व्याप्ति का निश्चय नही किया 3 पाश्चात्य दर्शन, पृष्ठ 161, 162 ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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