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________________ ( 114 ) होने वाली मे कार्यकारणमूलक संबंध नहीं होता, इसलिए वे कार्यकारण हेतु नही बन सकते । 61 रस का और रस रु५ का, नियत साहचर्य के आधार पर, गमक होता है, इसलिए सहचर हेतु की स्वीकृति में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । जैसे कोई मनुष्य अधेरे मे आम चूस रहा है। वह उस रसास्वाद के श्रावार पर यह जान लेता है कि इस आम मे रूप है, क्योकि जहा रस होता है वहा रूप होता ही है । क्रममा कार्यकारणमूलक ही नही होता, जिनमे कार्यकारणात्मक सवय नही होता उनमे भी क्रमभाव होता है । इस आधार पर पूर्वचर और उत्तरचर हेतु बनते हैं। मुहूत के पश्चात् रोहिणी का उदय होगा, क्योकि इस समय कृत्तिका उदित है। मुहूर्त पहले पूर्वाफाल्गुनी का उदय हो चुका है, क्योकि इस समय उत्तराफाल्गुनी उदित है। पूर्वचर और उत्तरचर मे समय का व्यवधान होता है, इसलिए ये स्वभावहेतु और कार्यहेतु नही हो सकते । तादात्म्य मध समकालीन वस्तुओ मे होता है और तदुत्पत्ति सवध अव्यवहित पूर्वोत्तर-क्षणपती पदार्यों में होता है। इस प्रकार उन दोनो मे समय का व्यवधान नहीं होता। जही समय का व्यवधान होता है वहा कार्यहेतु नही होता। इसीलिए पूर्वचार और उत्तरपर मे क्रममाव होने पर भी उन्हे कार्यहेतु की कोटि मे नही रखा जा सकता । कारण वही होता है जो कार्य की उत्पत्ति मे व्यापृत है। कुमकार घट की उत्पत्ति में व्याप्त होता है तब उसे घट का कारण माना जाता है। कार्य के प्रति व्यापृत वही होता है जो विद्यमान होता है। जो नट हो चुका है अथवा जो अभी उत्पन्न ही नही हुआ है वह असत् है। असत् किसी कार्य की उत्पत्ति मे व्यापृत नही होता। जो कार्य की उत्पत्ति मे व्यापृत नही होता उसे कारण नही माना जा सकता। मुहत्त के पश्चात् होने वाला रोहिणी का उदय अनागत होने के कारण असत् है तथा मुहत्त पूर्व उदित पूर्वाफाल्गुनी अतीत होने के कारण असत् है । इसलिए कृत्तिका को रोहिणी का और पूर्वा-फाल्गुनी को उत्तराफाल्गुनी का कारण नही माना जा सकता । कृत्तिका के पश्चात् रोहिणी के उदय का क्रम नियत है तथा उत्तराफाल्गुनी के पहले पूर्वाफाल्गुनी का उदय नियत है। उनके क्रम मे कोई नियमभग नही है, इसलिए पूर्व चर और उत्तरपर--दोनो गमक हैं और जो गमक होता है उसे हेतु मानने में कोई विप्रतिपत्ति नही होती। वीर मानते हैं कि स्वभाव और कार्य मे ही तादात्म्य और तदुत्पत्ति रहती है और उसीके आधार पर जाप्य और ज्ञापक का सम्वन्न होता है, इसलिए उन्ही कार्य और स्वभाव से वस्तु अर्थात् विधि की सिद्धि होती है। इस प्रकार वे विधिसाधक हेतु दो ही मानते हैं-स्वभावहेतु और कार्यहेतु । उनके अनुसार कार्य कारण
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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