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________________ ( 112 ) इसका बोध हो जाता है। पूर्व का निरीक्षण और अपर का निरीक्षण ये दो निरीक्षण अपेक्षावुद्धि को उत्पन्न करते हैं और उससे मस्या की प्रतिपत्ति होती है।15 भाग माहित्य मे प्रमाण का विशद वर्गीकरण मिलता है । अनुयोगहार मे प्रमाण के चार प्रकार परिणत हैं---द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण । भावप्रमा॥ के तीन प्रकार हैं गुणप्रमाण, नयप्रमाण और सत्याप्रमाण। आचार्य अकलक ने सख्या और उपमा को एक कोटिक प्रमाण माना है।" द्रव्यो और गुणो मे जो सस्यास्प धर्म पाया जाता है उसे जयवला मे सत्याप्रमा। कहा गया है। श्रागमयुग मे सत्याप्रमाण और उपमाप्रमाण स्वतत्र थे। प्रमाण-यवस्यायुग मे उन्हे प्रत्यभिज्ञा के अन्तर्गत स्थापित किया गया। 15 सिद्धिविनिश्चय, पृ०० 150 सत्यादिप्रतिपत्तिरच, पूर्वापरनिरीक्षणात् । 16 विस्तार के लिए देखें परिशिष्ट 1 । 17 तत्वार्यवात्तिक, 3/38 । 18 कसायपाहुड, भाग 1, पृष्ठ 381
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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