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________________ ( 95 ) इस व्यापक विषयावसाहिता मे केवल मीमासको को ही विप्रतिपत्ति नहीं है, वौद्धो को भी है । एक दृष्टि से नैयायिको और साख्यो को भी है। सैद्धान्तिकेष्टि से आगमयुग मे केवलज्ञान की व्याख्या के ये फलित हैं 1 सर्वथा अनावृत चेतना जो ज्ञानावरण के क्षीण होने पर होती है। 2 शुद्ध चेतना जो पाय के क्षीण होने पर होती है । 3 केवलमान जो कषायजनित सदनो के क्षीण होने पर होता है । भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और उसके बाद उन्होंने जो जाना उससे फलित होने वाली केवलज्ञान की व्यास्या में सर्वशता और सर्वभावदर्शिता है, फिर भी उसकी उतनी व्यापकता नही है जितनी दार्शनिक युग की व्याख्यानो मे है। नन्दीसूत्र मे केवलजान की जो न्यास्या है और जो भगवतीसूत्र मे सक्रान्त हुई है, उसीके आधार पर जैन ताकिको ने सर्वज्ञता का समर्थन किया है। उसके समर्थन मे अनेक तर्फ प्रस्तुत किए गए हैं। यहां उनमे से कुछेक तर्को का मै उल्लेख करूगा - 1 आत्मा स्वभाव से ही 'ज' है। वह प्रतिबन्धक (शानावरण) के होने पर 'अ-ज' होता है सूक्ष्म, व्यवहित और दूस्य पदार्थों का साक्षात नही कर सकता। प्रतिवन्धक हेतु समाप्त होने पर वह 'ज्ञ' हो जाता है। फिर 'ज्ञ' और 'जय' के वीच कोई अवरोध नहीं होता, इसलिए ज्ञेयमात्र उसमे प्रतिभासित होता है 130 __2 सर्पज्ञता का निरसन करने वाले कहते हैं कि मनुष्य सर्वज्ञ नही हो सकता । प्राचार्य ने पूछा-यह आप कैसे कहते है ? सर्वश नहीं है, यह आप जानकर कहते हैं या अनजाने ही ? सदा, सर्वत्र, सबमे से कोई भी सर्वज्ञ नही होता, यदि यह जानकर कहते हैं तो श्राप ही सर्वज्ञ हो गए। और यदि विना जाने कहते है तो आप यह कसे कह सकते हैं कि किसी भी देश-काल मे कोई व्यक्ति सर्वज्ञ नही होता ? ___3 किसी तत्व की सत्ता साधक-प्रमाण और बाचक- प्रमाण के अभाव द्वारा की जाती है। सर्वज्ञता का कोई सुनिश्चित वाचक-प्रमाण उपलब्ध नही है। इसलिए उसकी स्वीकृति निधि है ।। 30 योगविन्दु, श्लोक 431 ज्ञो ज्ञेये कमश. स्यादसति प्रतिवन्धके । दाह्य ऽग्निदाहको न स्यात् कथमप्रतिबन्धक ॥ ___31 प्रमाणमीमासा, 1/1/17 ___ बाधकामावाप । 'वृत्ति--सुनिश्चितासमवद्धाधकत्वात् सुखादिवसिद्धि ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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