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________________ ( 87 ) प्रमाग का फल जैन दर्शन प्रात्मवादी होने के कारण आत्मा को प्रमाता मानता है । ज्ञान आत्मा का गुण है और वह प्रमा का साधकतम उपकरण है, इसलिए ज्ञान को प्रमाण मानता है। अज्ञान की निवृत्ति ज्ञान से ही होती है, इसलिए ज्ञान को ही प्रमाण का फल (प्रमिति) मानता है। ज्ञान को प्रमाण और फल नहीं माना जा सकता यह प्रतिवादी नैयायिक द्वारा उपस्थापित तक है । यदि ज्ञान ही प्रमाण और वही फल हो तो, या तो ज्ञान होगा या फल । दोनो एक साथ कैसे हो सकते है ? इस समस्या के समाधान के रूप मे उनका परामर्श है कि ज्ञाता और विषय-ज्ञान के मध्य सबध स्थापित करने पाला इन्द्रिन-व्यापार, सन्निकर्ष आदि साधकतम करण प्रमाण है और उससे होने पाला विषय-ज्ञान या प्रमा प्रमाण का फल है । प्रमा का जो साधकतम करण है वह प्रमाण है इस विषय मे जैन और नैयायिक तक परम्परा मे मतभेद नही है। किन्तु मतभेद इस विषय मे है कि नैयायिक इन्द्रिय-व्यापार, सन्निकर्प आदि अचेतन तत्त्वो को प्रमा का साधकतम करण मानता है । जैन दर्शन अचेतन सामग्री को प्रमा का साधकतम कर नही मानता, ज्ञान को ही उसका सापकतम करण मानता है। नैयायिक मान्यता का फलित यह है-जिस कारण से ज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रमाण है। और ज्ञान उसका (प्रमाण का) फल है। जैन मान्यता का फलित इससे भिन्न है। उसके अनुसार पूर्वक्षण का ज्ञान (साधन ज्ञान ) प्रमाण है और उत्तरक्षण का शान (साध्य शान) उसका फल है। प्रमाणरूप स परिणत आत्मा ही फलरूप मे परिरात होता है, इसलिए प्रमाण को अज्ञानात्मक और फल को ज्ञानात्मक नही माना जा सकता । ज्ञयोन्मुख ज्ञान-व्यापार प्रमाण और अज्ञान-निवृत्तिरूप ज्ञान-व्यापार फल होता है । शान का साक्षात् फल अशान-निवृत्ति है । ज्ञान ही अज्ञान-निवृत्ति नहीं है। ज्ञान से अज्ञान-निवृत्ति होती है, इसलिए प्रमाण अज्ञान-निवृत्तिरूप फल का सावन है । प्रमाण पूर्वक्षणवर्ती है और फल उत्तरक्षणावर्ती । इस क्षण-भेद के कारण प्रमाण और फल भिन्न है। प्रमाण शान का साधनात्मक पर्याय है और फल उसका साध्यात्मक पर्याय है । इस पर्याथ-भेद से भी प्रमाण और फल भिन्न हैं। जो प्रमाता ज्ञय को जानता है उसी का अज्ञान निवृत्त होता है । जो ज्ञान रूप में परिणत होता है, वही फलरूप मे परिणत होता है । इस अपेक्षा से प्रमाण और फल अभिन्न भी हैं। अनेकान्तदृष्टि के अनुसार प्रमाण और फल मे सर्वथा भेद इसलिए नही हो - सकता कि वे दोनो एक ही ज्ञानधारा के दो क्षण हैं, और सर्वथा अभेद इसलिए नही हो सकता कि उनमें पौपिर्य या साध्य-साधन-भाव है। प्रमाण का अनन्तर (साक्षात्) फल अशान-निवृत्ति है । उसका परपर फल उपादान, हान और उपेक्षाबुद्धि
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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