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________________ ( 84 ) नही है किन्तु सूर्य की भाति स्व-पर-प्रकाशी है। जैसे सूर्य का प्रकाश अपनी उपलब्धि के लिए दूसरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं सिता में ही ज्ञान अपनी उपलब्धि के लिए मानान्तर की अपेक्षा नहीं रखता। माणिक्यनन्दि, वादिदेवसूरि,10 विद्यानन्द आदि प्राचार्यों ने 'स्वपरामासि' के स्थान ५२ 'स्व५र०यवसायि' का प्रयोग किया, इसलिए 'वाधविजितम्' या 'अविमवादि' जैसे विशेषण अपेक्षित नही रहे । आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण के लक्षण मे 'स्व' के प्रयोग को भी आवश्यक नहीं माना । उनके मतानुसार प्रमाण का लक्षण 'सम्यग अर्थ निर्णय' ही पर्याप्त है । उन्होंने यह स्थापित किया है कि 'स्व निर्णय' प्रमाण का लक्षण नही हो सकता, क्योकि वह अप्रमाण मे भी हो सकता है । ज्ञान की कोई भी मात्रा ऐसी नहीं है जो स्वविदित न हो । वृद्ध आचार्यों ने प्रमाण के लक्षण मे इसका प्रयोग किया है, वह परोक्षजानवाद आदि की परीक्षा के लिए है, इसलिए वह दोषपूर्ण नही है 113 तन्य आत्मा का स्वभाव है। उसके अन्वयी परिणाम को उपयोग कहा जाता है। उसके दो रूप हैं अनाकार और सकार । निर्विकल्प पेतना अनाकार श्रीर सविकल्प चेतना साकार होती है । शनाकार उपयोग दर्शन और साकार उपयोग जान है ।14 दर्शन की तुलना बौद्ध सम्मत निर्विकल्प जान से की जाती है । बौद्ध निर्विकल्प जान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। जन परम्परा दर्शन को इसलिए प्रमाण नही मानती कि वह व्यवसायी (निर्णायक) नहीं होता। 9 परीक्षामुख, 1/1 10 प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1/2 स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम् । 11 तत्वार्थश्लोकवात्तिक, 1/10/17 सायात्मक ज्ञान प्रमाणम् । 12 प्रमाणमीमासा, सूत्र 2 सम्यग निर्णय प्रमाणम् । __13 प्रमाणमीमासा, सूत्र 3 स्वनिर्णय सन्नप्यलक्षण अप्रमाणेऽपि भावात् । वृत्ति स्वनिर्णयस्तु अप्रमाणेऽपि सशयादौ वर्तते, न हि काचित् જ્ઞાનમાત્રા સાત થી જ સ્વસવિવિતા નામ . તતો જ સ્વનિર્ણયો लक्षणमुक्तोऽस्माभि , वृद्ध स्तु परीक्षार्थमुपक्षिप्त इत्यदोष । 14 दर्शन और शान की व्याख्या का एक प्रकार सैद्धान्तिक है और दूसरा दार्शनिक । सैद्धान्तिकव्याख्या इस प्रकार है दर्शन मे 'यह ५८ है, ५८ नही' इस प्रकार वाह्य पदार्यगत व्यतिरेकप्रत्यय नही होता । 'यह भी ५८ है, यह भी घट है'-इस प्रकार वाह्य पदार्यगत
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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