SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन संगीतपरकता प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती है।' इन कवियों ने मौलिक ही नहीं अनूदित प्रबन्धकाव्यों में भी संगीत अपनी सुमधुर गूज से न जाने कब से लोक-जीवन को रसप्लावित कर रही हैं । वस्तुत: इनमें रस का प्रच्छन्न प्रवाह, सहज सौकुमार्य एवं कला का अभिनव रंग है। सचमुच प्रबन्ध के कथानक की बहती हुई धारा में, उपदेश के गहरे-हलके रंग के बीच, शिल्प-सुषमा से सुसज्जित, संगीत की सप्राणता से सुरभित, लोक-मानस को रस से आह्लादित करने वाली कितनी देशियों से, कितनी राग-रागिनियों में, कितने कवियों ने, कब से काव्य को सजाया; कितने उनके आयाम हैं; कहाँ उनका उद्गम स्रोत है; कब और कहां उनका क्या स्वरूप रहा है; चरित, रास, चौपई आदि काव्यों में उनका क्या स्थान है---आदि अनेक टूटी हुई कड़ियों के जुड़ जाने से संगीत और साहित्य का एक रिक्त कोना भर सकेगा। यह स्वतंत्र शोध का विषय है। ये सब इतने प्रश्न हैं, जिनका उत्तर कोई अनुसन्धित्सु ही दे सकेगा। (विशेष के लिए देखिए-श्री अगरचन्द नाहटा का 'अभय जैन ग्रन्थालय' बीकानेर, राजस्थान ।) १. (क) सेठ वस्यो पुर आइ, हो भाई सेठ वस्यौ पुर आइ । ता सुत को पालें दोउ भामिनि हितमित तें अधिकाइ ॥ हो भाई सेठ वस्यो पुर आइ० ।। -श्रोणिक चरित, पद्य ४४०, पृष्ठ ३२ । (ख) अरी ऋतु बसंत की आई हाँ। अरी सब फूल रही बन राई हाँ ॥ अरी सब खेलें फागुन होरी हाँ। अरी सतभामा रुकमनि गोरी हाँ। -नेमिनाथ मंगल, पृष्ठ १ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy