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________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन अंग माना जाता था। जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह के दरबार में विशिष्ट संगीतज्ञों का सम्मेलन भी हुआ और 'संगीतसागर' नामक पुस्तक भी लिखी गई। लोकगीतों के परिवेश में भी संगीत पल्लवित होता रहा। अनेक कवियों एवं सन्तों ने भी संगीतकला को विकसित किया । 'भारतीय इतिहासविज्ञों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि उन भक्त-प्रवर कवियों और प्रबुद्ध प्रतिभासम्पन्न सन्तों ने जन-गण-मन से उदासीनता और निराशा को हटाकर आशा और उल्लास का संचार किया। भोग की भयंकर गन्दगी को हटाकर भक्ति का सुगन्धित सरसब्ज बाग लगाया व दार्शनिक जैसे गहन-गम्भीर विचारों और धार्मिक भावनाओं को गगनचुम्बी राज-प्रासादों से लेकर गरीबों की झोंपड़ियों में भी पहुँचाने का प्रयत्न किया।" उस युग में जैन संत कवियों और वैदिक भक्त कवियों ने जो संगीत सिरजा, वह आध्यात्मिक रस से आप्लावित है । उनका तेजस्वी स्वर भौगोलिक सीमाओं को लांघकर सुदूर प्रान्तों में भी गूजा ।" इसी संदर्भ में डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है-'धार्मिक पुरुषों में गान-विद्या का काफी प्रचार था। शिया और सूफियों में इसका बहत रवाज था। कबीरपंथियों में भजन खूब गाये जाते थे । बंगाल के वैष्णव 'कथा' तथा 'कीर्तन' को अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने का साधन समझते थे । वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवों में अनेक असाधारण गायक थे। दक्षिण में रामदास और तुकाराम ने गान-विद्या को धार्मिक उपदेश देने का साधन बनाया । तुकाराम के 'अभंग' बी० एन० लूनिया : भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विकास, पृष्ठ ४१६ । २. सन् १७७९-१८०४ ई० । ३. देवेन्द्र मुनि शास्त्री : लेख-शीर्षक-'भारतीय संस्कृति में संगीत कला', गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रंथ, पृष्ठ २६६ । ४. वही, पृष्ठ २६४। ५. वही, पृष्ठ २६६ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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