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________________ ३७४ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन होते हुए दिखायी नहीं देता । उसके हृदय से विवेक-बुद्धि पलायन कर जाती है और वह उन्माद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है।' बन्ध ___ दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं । जैन दर्शन में आत्मा के साथ कर्मों का बंधना बंध कहलाता है। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं। वे समूचे लोक में जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बँध जाते हैं, यह उसकी बंध अवस्था है। कर्मयुक्त आत्मा का बंध से कोई सम्बन्ध नहीं है। एक बार आत्मा यदि कर्म-शृंखला से मुक्त हो गया है, तो फिर उसे कर्म का बंध नहीं होता। कर्मबद्ध (संसारी) आत्मा ही कर्म-बन्धन के लिए उत्तरदायी है।" ____ आत्मा के साथ बद्ध कर्मों की करतूत निराली है। इन्हीं के फलस्वरूप मनुष्य कभी सिर पर छत्र धारण करता है तो कभी अपना रूप ही विचित्र बना लेता है। कभी स्वर्ग के सुख भोगता है तो कभी अन्न के दाने-दाने के लिए तरसता है। बंध के साथ ही संवर तत्त्व भी उल्लेखनीय है । संवर ___ आत्मा की ओर आते हुए (आस्रव) कर्म-परमाणुओं को रोकना संवर है। इससे आत्मा के लिए मोक्ष की भूमिका तैयार हो जाती है और यदि वह आगे चलकर दृढ़ता पूर्वक निर्जरा को अपना लेता है तो फिर मोक्ष दूर नहीं रहता है। १. सीता चरित, पद्य १५२, पृष्ठ ५२ । २. तत्त्वार्थसूत्र, पद्य ८, पृष्ठ २ । मुनि श्री नथमल : जैन धर्म और दर्शन, पृष्ठ १६५ । ४. पार्श्वपुराण, पद्य ६२, पृष्ठ १४६। शतअष्टोत्तरी, पद्य ७५, पृष्ठ २५ । .. सीता चरित, पद्य २५४२, पृष्ठ १४८ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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