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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपाव ३५३ जीवन को महामहिम बनाता है । जैन परम्परा में दान इहलोक और परलोक दोनों के लिए श्रेयस्कर माना गया है। दान के साथ भावना का विशेष सम्बन्ध है । भावनापूर्वक दिये गये दान के समान त्रिलोक में अन्य कोई वस्तु नहीं है । वह स्वर्ग-मोक्ष-दायक है। दान देते समय सुपात्र एवं कुपात्र पर दृष्टि रखना अनिवार्य है । सुपात्र को दिया गया दान धर्म और कुपात्र को दिया गया दान अधर्म की श्रेणी में आता है। पात्रदान ही शुभ है । जो सुविज्ञ नर सुपात्र को दान देते हैं, उन्हें मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। कुपात्र को दान देना ठीक वैसे ही है, जैसे ऊसर भूमि में बीज बोना। इतना ही नहीं यदि कोई पुरुष कुपात्र को भाव सहित भी दान देता है, तो भी उसे निदान दुःख मिलता है, ऐसे दानी को मरने पर भी सुगति नहीं मिलती। दान मनुष्य का आत्म-धर्म है। यदि वह स्थिर भाव से शुद्ध अनुभवरस का पान कर शिवक्षेत्र में निवास करना चाहता है तो मुक्त हाथों से चारों प्रकार का दान दे। आगे 'शील' की भूमि पर आइये ।। शील यदि दान चन्द्रमा के समान है तो शील सूर्य के समान । शील अपने आप में धर्म है, पुरुष एवं नारी का भूषण है। आलोच्य ग्रन्थों में शील का अर्थ प्रायः परस्त्रीगमन या पुरुष गमन के निषेध से लिया गया है। शील मनुष्य का श्रृंगार है , संसार में शील-रहित मनुष्य भ्रष्ट है । १. बंकचोर की कथा, पद्य २८, पृष्ठ ४। २. वही, पद्य २७, पृष्ठ ४ । ३. वही, पद्य २६, पृष्ठ ४ । ४. शतअष्टोत्तरी, पद्य ७१, पृष्ठ २४ । ५. पार्श्वपुराण, पद्य १६६, अधिकार ५, पृष्ठ ६२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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