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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३५१ से मुक्ति नहीं मिलती। हो कर्म-पुद्गल अपनी प्रकृति के अनुसार अपना फल देकर स्वत: नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य साधना-बल से अशुभ कर्मों का क्षय कर पूर्ण सिद्ध हो सकता है। पुण्य-पाय आत्म-भाव पुण्य का बन्ध करते हैं और अनात्म भाव पाप का। मनुष्य पुण्य का फल भी भोगता है और पाप का भी । पुण्य से सुख और कीर्ति की उपलब्धि होती है। पूर्व किये गये पुण्यों के फलस्वरूप जीवन में सुख मिलता है । पुण्यवान् पुरुष की जय होती है । पुण्य की समता की अन्य कोई वस्तु नहीं है। जगत् में पुण्य ही एकमात्र सुखकारी और रिद्धि-सिद्धि आदि का देने वाला है। पाप के समान मनुष्य का कोई शत्र नहीं है । पाप से नाना दुःख प्राप्त होते हैं। उत्तम जीव पाप से निवृत्त होकर स्वर्ग-मोक्ष-पद प्राप्त करता है।' पापी जीव के गर्भ में आते ही माता-पितादि के ऊपर कष्टों का पहाड़ टूट पड़ता है । जो जीव दीर्घ पाप कमाता है, उन पाप-कर्मों का उदय भी तत्काल ही होता है। पूर्व जन्म के पापों के फलस्वरूप ही मनुष्य दुःख भोगता है। ईश्वरत्व जैन धर्म प्रायः ईश्वरविषयक विचारधारा में विश्वास नहीं करता, तथापि हमें जैन प्रबन्धकाव्यों में ईश्वरत्व के प्रति प्रकट की गयी आस्था के १. (क) यशोधर चरित, पद्य ११६ । (ख) पावपुराण, पद्य ११८, पृष्ठ १५। २. डॉ० मोहनलाल मेहता : जैन दर्शन, पृष्ठ ३५६ । १. पार्श्वपुराण, पद्य ८, पृष्ठ १४८ । शतअष्टोत्तरी, पद्य १०४, पृष्ठ ३२ । श्रेणिक चरित, पद्य १७७०, पृष्ठ ८०। .. यशोधर चरित, पद्य ५५२, पृष्ठ ५१ । ७. पार्श्वपुराण, पद्य ६३, पृष्ठ १२। नेमिचन्द्रिका, पृष्ठ २० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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