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________________ संसार को असारता विवेच्य कृतियों में स्थल स्थल पर संसार की अनित्यता का उद्घोष है । यह संसार स्वप्नवत् है, ' जो मधुमय और लुभावना प्रतीत होता है, किन्तु परिणाम में विषमय है । प्राणी के लिए यह संसार उसी प्रकार है, जैसे शुक के लिए सेमल का फल | संसार अनन्त दुःखों का मूल है । यहाँ सुखी कोई नहीं है, चाहे वह निर्धन है या धनवान । इसके अतिरिक्त समस्त सांसारिक सम्बन्ध लोभमय और स्वार्थमय हैं । * कर्म फल के कारण संसारी सम्बन्ध विचित्रविचित्र से जान पड़ते हैं, तत्वतः वे मिथ्यारूप हैं । ४ विषयासक्ति के कारण मनुष्य संसार से विमुख नहीं होता, यद्यपि वह जानता है कि कोई किसी का नहीं है । फलतः वह नरकादि का मार्ग तय करता है । अतएव उसका धर्म है कि वह संसार से विमुख हो जाये, अन्यथा यहाँ उसे क्षण-क्षण कालकवलित होना पड़ेगा और सुखों के स्थान पर अपार दुःख भोगने होंगे । ५ १. दुर्लभ मनुष्य भव किन-किन शुभ कर्मों के फलस्वरूप यह दुर्लभ नर-भव (जन्म) मिला है, इस विश्वास में मानव का अपरिमित हित अन्तर्निहित है । 'नरभव मिले, न बारंबार यह मनुष्य के लिए चेतावनी है । यदि मनुष्य अनात्म भावों में स्वयं को खोता है, तो यह सार रूप मनुष्य भव की विडम्बना है ।" २. १. नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ४. ५. 2. ३४६ ७. शतअष्टोत्तरी, पद्य ७८, पृष्ठ २५ । वही, पद्य ७४, पृष्ठ २५ । पार्श्वपुराण, पद्य ७५, पृष्ठ २६ । श्रेणिक चरित्र, पद्य १५३६, पृष्ठ १०३ ॥ सीता चरित, पद्य २०२४, पृष्ठ ११५ । नेमिनाथ मंगल, पृष्ठ २३ । सीता चरित, पद्य १६५३, पृष्ठ ११६
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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