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________________ ३३६ ३ ३ ६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन शरीर जो यौवन प्राप्त करता है, वह संध्या-बेला के क्षणिक प्रकाश एवं जल के अस्थिर बुदबुदों की भांति है । लक्ष्मी लक्ष्मी स्वभावतः चंचल है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। वह मानव में अहं भाव उत्पन्न करके उससे नभमारण मूठ चलवाती है । इससे एक भी कार्य सिद्ध नहीं होता । जैसे तृषा से आतुर मृग मरुभूमि में झिलमिलाते हए बालुका-कणों में भ्रमवश जलाशय की कल्पना कर क्रम-क्रम से आगे ही दौड़ता हुआ अन्त में जल के अभाव में निराशा और दुःख से कराह उठता है, वैसे ही लक्ष्मी भी मनुष्य के मन-मृग के लिये मरीचिका है, निराशा और दुःख का कारण है ।' उद्यम उद्यम संसार में शीर्ष पर है । वह मनुष्य का दूसरा विधाता है। वह उसके समस्त दुःखों का विनाश करने वाला है । उसके बिना मनुष्य रंक के समान है । जो पुरुष लक्ष्मीवान् है, वह भी उद्यम के बिना जीवन-रण में हार जाता है । लक्ष्मी प्रकृति से चंचल है, अतः उसका क्या विश्वास ? धनवान के घर से जब लक्ष्मी पलायन कर जाती है, तब यदि वह उद्यमी नहीं है तो वह दर-दर का भिखारी बन जाता है। रोजी-रोटी का चोली-दामन का साथ है। जो धनी मनुष्य रोजगार करना जानता है, वह लक्ष्मी के चले जाने पर भी आनन्द से पेट भर कर गुजारा कर सकता है। १. सीता चरित, पद्य २०२७, पृष्ठ ११५। १. वही, पद्य २४४७, पृष्ठ ११६ । १. शील कथा, पृष्ठ २५ । ४. वही, पृष्ठ २७ । ५. जो नर लछमीवान है, कर जाने रुजगार । लछमी जाय पलाय तो, उदर भरै सुखकार ॥ -शील कथा, पृष्ठ २७ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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