SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा - प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन सामान्यतः इस युग का समाज तीन वर्गों में विभक्त था : प्रथम वर्ग वह था जिसके अन्तर्गत मनसबदार, सामन्त, अमीर, राजपरिवार - जन तथा राज्य के उच्च पदाधिकारी थे । इस वर्ग के लोग वैभव एवं विलासप्रिय थे । मूलतः वे सामन्तशाही प्रवृत्ति के रंग में रंगे थे । सुखसुविधा, शान-शौकत, आमोद-प्रमोद, सुन्दरी और सुरा उनके जीवन के संगी थे । 'एक राजा, अमीर अथवा सामन्त के यहाँ दो, तीन, चार या इससे भी अधिक रानियाँ थीं ।" उनके घरों में उनके अपने हरम थे, जिनमें अपने मनोरंजन के लिए वे मनमानी संख्या में रक्षिताएँ और नर्तकियाँ रखते थे । इस प्रकार उनके महलों में 'रूप का बाजार' लगता था । वस्तुत: उनकी विलासप्रियता की कोई सीमा न थी । ३४ द्वितीय वर्ग में व्यापारी, साहूकार, छोटे मोटे ताल्लुकेदार और सामान्य श्रेणी के राज्य कर्मचारी । इस वर्ग के अधिकांश व्यक्ति संयमी और मितव्ययी थे । वे सादगी से रहते थे । उनमें उच्च शिक्षा का प्राय: अभाव था । धनोपार्जन और धन संचय की प्रवृत्ति उनमें सबसे अधिक थी । न वे बहुत निर्धन थे, न बहुत धनवान | 1 तृतीय वर्ग जनसाधारण का था और यही मुख्यतः उत्पादक वर्ग था । इस बहुसंख्यक वर्ग के लोगों की दशा हीन और दयनीय थी । इस वर्ग में प्राय: कृषक, श्रमजीवी और साधारण नौकर-चाकर लोग सम्मिलित थे । ' ये अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकने योग्य आमदनी को सुगमता प्राप्त नहीं कर सकते थे । इनको तन ढकने को कपड़ा भी कठिनता से प्राप्त हो पाता था । रेशमी व ऊनी कपड़ों का प्रयोग तो इनकी कल्पना से भी परे था । प्रान्सिसको पत्ते अर्त के अनुसार मजदूरों (कर्मकारों), चपरासियों व १. देखिए – जे० एस० हालेण्ड : द एम्पायर ऑफ ग्रेट मुगल, पृष्ठ ६०-६१ । २. देखिए - मिरात अहमदी, १-२५० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy