SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा-शैली ३०५ उत्प्रेक्षा प्रबन्धकाव्यों में उत्प्रेक्षाओं का स्थल-स्थल पर प्रयोग हुआ है। उनमें प्रयुक्त उत्प्रेक्षाएँ अनेक हैं । बानगी के लिए दो-चार द्रष्टव्य हैं : महा मनोहर रूप रसाल । मानों ऊग्यौ चन्द्र विसाल ॥' बालक का रूप-लावण्य ऐसा है, मानो विशाल चन्द्रमा । यहां चन्द्रमा सामान्य और परम्परित उपमान है। रूप-चित्रण के अवसर पर कविजन प्रायः चन्द्रमा को भूलते नहीं हैं। इसी प्रकार रुदन करने और अश्र बहाने के लिए बरसते हुए धन को ला बैठाना भी कवियों को प्रिय रहा है : रुदन करै अधिकै अब, मानो घन बरसाय ।' ___ यहाँ सादृश्य का विधान है। यह उपमान उपमेय का चित्र साकार करने में भली प्रकार समर्थ है । एक अन्य उदाहरण : राजत उतंग असोक तरुवर, पवन प्रेरित थरहर। प्रभु निकट पाय प्रमोद नाटक, करत मानों मनहरै ॥ इस उत्प्रेक्षा अलंकार में लालित्य की झलक है । प्रभु का सामीप्य पाकर पवन के सहारे लहराता हुआ अशोक वृक्ष ऐसा लगता है मानो मनोहर नाटक कर रहा हो। नाटक में पात्र द्वारा प्रकट बाह य चेष्टाओं और भाँति-भाँति से झूमते हुए अशोक वृक्ष में समत्व भाव की प्रतिष्ठा हृदयस्पर्शी है । उदाहरण और भी : विमलमती चंचल चख चोर । छिन अवनी छिन जिनदत्त ओर ॥ तिन दोनों की मधि-सो रही। नील कमल मानों रचना भई ॥ जीवंधर चरित (दौलतराम), पद्य ४७, पृष्ठ ४ । २. शीलकथा, पृष्ठ ३६ । १. पार्श्वपुराण, पद्य १२५, पृष्ठ १३४ । जिनदत्त चरित (बख्तावरमल), पद्य ६६, पृष्ठ १८ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy