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________________ भाषा-शैली २६७ ऊपर आलोच्य काव्यों की भाषा के सम्बन्ध में जो विवेचन किया गया है, उससे निष्कर्ष यह निकलता है कि उनमें अधिकांश स्थलों पर भाव के अनुरूप भाषा का प्रयोग हुआ है और इस प्रकार भाषा के अनेक रूप उनमें प्रशस्त हैं। अधिकतर प्रबन्धों की भाषा जनभाषा के समीप उतरती हुई दिखायी देती है । शब्द-चयन और शब्द-योजना के दृष्टिकोण से भी भाषा को अधिक साहित्यिक बनाने के स्थान पर उसे अधिक व्यावहारिक रूप देने का प्रयास किया गया है । 'सीता चरित', 'श्रेणिक चरित' 'नेमीश्वररास' आदि काव्यों की भाषा में राजस्थानी के कुछ बीज समाहित हो गये हैं। 'चेतन कर्म चरित्र' की भाषा में कहीं-कहीं खड़ी बोली का पुट दृष्टिगोचर होता है; अन्यथा अधिकांश प्रबन्धकाव्यों में ब्रजभाषा की रूपमाधुरी का सहज सन्निवेश उपलब्ध होता है। अलंकार-विधान भाषा में अलंकारों की उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । अलंकार जहाँ भाषा की सजावट के उपकरण होते हैं, वहाँ वे भावोत्कर्ष में भी सहायक होते हैं। उनकी एक मनोवैज्ञानिक भूमि होती है । वे कथन में स्पष्टता, विस्तार, आश्चर्य, जिज्ञासा, कौतूहल आदि की सर्जना करते हैं।' वस्तुतः 'अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, भाव की अभिव्यक्ति तात मात तें चेटका, वृथा विछोह्यो बाल । कौतुक कों लीयो कंवर, चरण चूच चखि लाल । -जीवंधर चरित (दौलतराम), पद्य १५.१६, पृष्ठ ३६ । (ख) कहि कठोर दुर्वचन बहु, तिल तिल खंडे काय । सो तब ही ततकाल तन, पारे-बत मिल जाय । कांटे कर छेदें चरन, भेदें मरम विचार । अस्थिजाल चूरन करें, कुचलें खालि उपारि ॥ -पावपुराण, पद्य १७०-७१, पृष्ठ ४२ । .. डॉ० नगेन्द्र : रीतिकाव्य की भूमिका, पृष्ठ ८६-८७ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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