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________________ रस-योजना २५७ यहाँ राम-लक्ष्मण आश्रय और शूर्पणखा आलम्बन है । शूर्पणखा का बदला हुआ कन्या रूप और उसके मुख से निकले हुए शब्द उद्दीपन विभाव हैं । हृदय में हास का उद्वेलन अनुभाव और वीड़ा, अवहित्था आदि संचारी भाव प्रकट हैं । इन सबसे पुष्ट स्थायी भाव 'हास' हास्य रस की व्यंजना में सक्षम हुआ है । यह हास्य शृंगार का सहचर है । 'चेतन कर्म चरित्र' में एक-दो स्थलों पर इस रस का प्रसार दिखायी देता है । 'शत अष्टोत्तरी' में शिष्टपूर्ण व्यंग्यात्मक स्थलों पर हास्य की झलक देखी जा सकती है । 'पंचेन्द्रिय संवाद'३ तथा 'पार्श्वपुराण में भी इतस्ततः 'हास्य रस उभरा है। सारांश यह है कि प्रबन्धकाव्यों में स्वप्रशंसा, अहानिप्रद दोषारोपण, विदग्धता आदि के परिवेश में विवेच्य रस का प्रसरण है । अब वीभत्स रस विचारणीय है। बीभत्स रस बीभत्स रस की उद्भावना की ओर जैन कवियों की स्वभावतः प्रवृत्ति रही है । शान्त रस को निष्पन्न अवस्था तक पहुंचने के लिए उन्हें कतिपय काव्यों में कहीं-कहीं इस रस का आश्रय लेना पड़ा है। नरक और युद्धादि के प्रसंगों में भी इस रस के उन्मेष की झलक है। इस दिशा में 'पार्श्वपुराण' काव्य महत्त्वपूर्ण है। उसमे 'जुगुप्सा' का १. चेतन कर्म चरित्र, पद्य १०-११, पृष्ठ ५६ । २. (क) शत अष्टोत्तरी, पद्य ८७ से ११, पृष्ठ ४५ । (ख) वही, पृष्ठ १४ । ३. (क) पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १३, पृष्ठ २३६ । (ख) वही, पद्य १४-१५, पृष्ठ २४० । (ग) वही, पद्य २८, पृष्ठ २४१ । ४. पार्श्वपुराण, पद्य ६६, पृष्ठ १३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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