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________________ रस-योजना रस का इतिहास बहुत प्राचीन है। रस साहित्य का प्राण है । यद्यपि भारतीय साहित्यशास्त्रियों के दो वर्ग रहे हैं : एक रसवादी वर्ग और दूसरा रसेतरवादी वर्ग; किन्तु दोनों वर्ग विरोधी नहीं हैं। अन्तर केवल इतना है कि प्रथम वर्ग के लोग रस को महत्त्व देते हैं, किन्तु दूसरे वर्ग के लोगों ने भी रस को अस्वीकार नहीं किया; हाँ, उन्होंने अलंकार, वक्रोक्ति, रीति आदि को विशेष महत्त्व देकर रस के महत्त्व को निस्तेज कर दिया है । आज तक रसवादी मौजूद हैं और रस से सम्बन्धित अनेक चर्चाएं हुई हैं। नयी कविता रस को अस्वीकारती हुई भी रस की मान्यता का मूलोच्छेद नहीं कर सकी है। उसका अर्थबोध केवल रस पर हावी होना चाहता है। वस्तुतः 'रस ही भारतीय शिल्प और कला का प्राण है-उसकी अनुभूति के प्रकार को लेकर बहुत बहस हुई है, पर उसकी अनुभूति की सचाई पर कभी संदेह नहीं किया गया है। जो लोग रसवाद का अवमूल्यन करते हैं, वे जीवन और साहित्य के तत्त्व विशेष को भुलाकर ही करते हैं । आनन्द जीवन का सार है । वही लक्ष्य भी है। जिसमें आनन्द की झाँकी नहीं वह जीवन कैसा ? और जिसमें जीवन नहीं वह साहित्य कैसा ?'२ 'आनन्द दो कोटियों में विभाजित किया गया है-लौकिक और अलौकिक । काव्यानन्द ब्रह्मानन्द सहोदर कहलाकर लोकोत्तर की-सी प्रतीति में लौकिक ही है । साहित्य में रस का यह स्थान साहित्य को जीवन के कितना समीप सिद्ध करता है, इसके लिए किसी क्लिष्ट कल्पना की आवश्यकता नहीं है।' 1. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी : हमारी साहित्यिक समस्याएँ, पृष्ठ १७२ १७३ । २. डॉ० सरनामसिंह शर्मा 'अरुण' : बिखरे फूल : साहित्य में रस तत्त्व, पृष्ठ १३६ । ३. वही, पृष्ठ १३८ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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