SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरित्र-योजना २०३ महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं कर सकी तो वह कायरता को 'हेय-हेय' कहता हुआ दर्प, प्रचंडता, अहंकार और क्रोध से पुकारता हुआ उसकी भर्त्सना करता है : रावन क्रोध कियौ अति भार । दुष्ट दूर होह तू नारि । भौंह वक्र कीयो छिनमांहि । रहो मती कायर मुझ पांहि ॥१८५४॥ माता सुभट सुभट की नारि । पिता सुभट मय बड़ी उदार । तू काइर काइर वच कहै । काइर होय बचन ए गहै ॥१८५५॥ मुझसौ सुभट नहीं जग मांहि । काहर वैन कहै मुझ पांहि । ताथे मैं तुमको परिहरी । जाहु इहां मत रहियो षरी ॥१८५७॥' उपयुक्त उद्धरण में हम यह भी देखते हैं कि उसकी वाणी संयत नहीं है । युद्ध में वह लक्ष्मण से भी 'सुनिहो लछिमन नीच' कहकर अपनी अशिष्टता एवं अभद्रता का परिचय देता है । हाँ, वह युद्धवीर अवश्य है । उसका अद्भुत युद्ध-कौशल राम के साथ युद्ध में दृष्टिगोचर होता है, किन्तु उसका असाधारण वीर एवं रौद्र रूप उसकी भयंकर आकृति, विस्फोटक वाणी तथा उसके अतिशय अहं एवं क्रोध के कारण दब-सा गया है। सती सीता को अतिशय कष्ट देने में उसकी अत्याचारिता, विषयासक्ति एवं कामुकता ही मुख्यतः व्यंजित हुई है। धनपाल 'शीलकथा' में धनपाल सेठ का चरित्र भी अधम चरित्रों की श्रेणी में सीता चरित, पृष्ठ १०४ । २. वही, पद्य १४८७, पृष्ठ ८२। ३. वही, पद्य १४८३, ८६, ६०, पृष्ठ ८२ । पुनि कोप उठो उरमांहि । नभ जीवत छोडौं नांहि ॥ रावन बहुते अति क्रोध । उठो कर भाव विरोध ॥ आयो जहाँ सुभट अनेक । उठो निज आसन टेक ॥ देषी अति नजर कूर । भौंह धनष चढ़ाई सूर ॥ -वही, पद्य १८०८-६, पृष्ठ १०१ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy