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________________ १६४ बैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन हृदय कभी उच्छ, वासों से, कभी विलाप से और कभी ज्ञान से भर उठता वह राजमहलों में निवास करने वाली कोमलांगी नारी नहीं है। वह अबला होते हुए भी सबला है । रणभूमि में अपना शौर्य प्रदर्शित करने वाली वीरांगना तो वह नहीं है परन्तु जीवन-रण में असंख्य वाणों से बिंधकर वह अपने अपूर्व शौर्य एवं तेज का परिचय देती है। राजुल 'नेमीश्वर रास', 'नेमिनाथ मंगल', 'नेमिचन्द्रिका' (मनरंगलाल), 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण), 'नेमि-राजुल संवाद', 'नेमिनाथ चरित', 'राजुल पच्चीसी' प्रभृति काव्यों में राजुल अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। उसका चरित्र इतना गरिमामयी है कि उपयुक्त काव्यों में वह नायिका पद का निर्वाह करती है। इन काव्यों में उसकी स्थिति ऐतिहासिकता एवं काल्पनिकता दोनों ही दृष्टि से विशिष्ट है। वह राजा उग्रसेन की पुत्री और नेमिनाथ की पत्नी है । पत्नी ही कहना चाहिए क्योंकि उनके साथ विवाह न होते हुए भी वह उन्हीं को अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन का पति स्वीकार कर लेती है।' सीता फिरे चहूँ दिस वन में, नेक न करै असास । कबहूँ महा मोह अति पूरन, कबहूँ ग्यान विलास ॥ सीता करै विलाप, हा हा कर्म कहा भयो। जो निज पोतं पाप, भोगे बिना न छूटये ॥ -सीता चरित, पद्य ८२-८३, पृष्ठ ७६ । १. पहुंची पीव पास ही जाइ । सुणिज्यो प्रभु तुम चित लाइ । , हम कौन गुन्हों तुम कीयो । परण्यां बिन ही दुष दीयो । -नेमिनाथ चरित, पद्य १०३ । . नेमिचन्द्रिका (आसकरण)।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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