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________________ २० जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन जैन धर्म से अलग करके देखना धार्मिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से अनुचित होगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि जैन साहित्य ब्राह्मण साहित्य के समानान्तर अपना रूप सँवारता आ रहा है । यह ठीक है कि जैन और बौद्ध धर्म का साहित्य मूलतः जनरुचि और जनभावना को ध्यान में रखकर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हुआ था, इसलिए उसकी भाषा अधिकांशत: जनभाषा ही रही है, किन्तु जैनों की संस्कृत की रचनाएँ भी तो हैं जो उनकी संस्कृत-क्षेत्रीय क्षमताओं को प्रमाणित करती हैं । अनेक साधु और श्रावक जिस प्रकार भाषा के पंडित रहे हैं, उसी प्रकार संस्कृत के भी। ___ कहने का तात्पर्य यह है कि जैन साहित्यकारों ने साहित्य की सभी विधाओं का प्रणयन किया है और रूढ़ भाषा के साथ-साथ जन-भाषा के विकास में भी समुचित योग दिया है । विवेच्य युग के साहित्यकारों ने भी अपनी क्षमताओं का उपयोग अधिकांशतः परम्पराओं के परिपार्श्व में ही किया है। उन्होंने भी गद्य-पद्य और चम्पू, तीनों शैलियों में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। हमारे विवेच्य क्षेत्र में केवल पद्य अभिप्रेत है। प्राचीनों ने पद्य के प्रमुखतः दो रूप माने हैं-प्रबन्ध और मुक्तक । हमारी विवेचना प्रबन्ध से सम्बन्धित है । संस्कृत-काव्यशास्त्रियों के अनुसार प्रबन्धकाव्य दो प्रकार का होता है-महाकाव्य और खण्डकाव्य । एक तीसरा रूप 'काव्य' भी है, इसको आधुनिकों ने 'एकार्थकाव्य' नाम दिया है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में इन्हीं तीनों काव्य-रूपों के विविध पक्षों पर यथोचित विस्तार से विचार किया गया है । यहाँ यह कह देना अभीष्ट है कि मैंने उन्हीं प्रबन्धकाव्यों को अपने अध्ययन का विषय बनाया है, जिनका कि मेरी दृष्टि में साहित्यिक महत्त्व है। इन प्रबन्धकाव्यों में महाकाव्य, एकार्थकाव्य एवं खण्डकाव्य तीनों ही शामिल हैं।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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