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________________ चरित्र-योजना १७३ हो सकती है, उसमें चौर्य और छलना की दुर्गंध-सी आ सकती है; किन्तु तथ्य इसके विपरीत है। वह जहाँ शिशु 'पार्श्व' को उठाकर ले जाने के लिए उसकी माता को सुखद निद्रा में सुलाकर, उसके पास मायामय पुत्र रखती है, वहां वह पार्श्व को विधिपूर्वक जन्म-स्नान कराने एवं उसका शृंगार करने के उपरान्त यथावत् एवं यथास्थान पार्श्व को रखकर माता की माया-नींद को हरकर उसे जाग्रतावस्था में लाकर अगाध आनन्दनुभूति कराती है।' वस्तुतः इस महत्कार्य में ही इन्द्राणी का भाव-सौकुमार्य, देवत्व और भक्ति-माधुर्य प्रकट होता है। कला-प्रेम इन्द्राणी के चरित्र की एक और विशेषता है। पार्श्व को स्नान कराने के पश्चात् वह अपने ही हाथों से उसका शृंगार करती है । यह शृंगार कितना लुभावना है ! इस में वैसी सात्विकता और पावनता है ! इससे शची के चरित्र को कितना उत्कर्ष मिला है, यह देखिये : कुकुमादि लेपन बहु लिये । प्रभु के देह विलेपन किये ॥ इहि सोभा इस औसर सांझ । किधों नीलगिरि फूली सांझ ।। और सिंगार सकल सह कियौ । तिलक त्रिलोकनाथ के दियो। मनिमय मुकुट सची सिर धर्यो । चूड़ामनि माथे विस्तर्यो । लोचन' अंजन दियौ अनूप । सहज स्वामि दृग अंजित रूप ॥ मनि कुडल कानन विस्तरे । किधों चंद सूरज अवतरे ॥ विद्याधर दिव्य पात्रों में विद्याधर का महत्त्व भी अविस्मरणीय है। हमें विद्याधरों के चरित्र की झाँकी 'मधुबिन्दुक चौपई' तथा 'पंचेन्द्रिय संवाद' १. माया नींद सची तब हरी । जिन जननी जागी सुख भरी ॥ भूषन भूषित कांति विसाल । भर लोचन निरख्यौं जिन बाल ॥ अति प्रमोद उर उमग्यौ तब। पूरन भये मनोरथ सबै ॥ -पार्श्वपुराण, पद्य ६८-६६, पृष्ठ १०१ । २. वही, पद्य ७६-७८, पृष्ठ १०३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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