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________________ प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत १५५ समीपस्थ वन-वर्णन में कवि हृदय खूब रमा है परन्तु उसे प्रकृति के सुरम्य, मधुर एवं कोमल पक्ष ने ही अधिक प्रभावित किया है : जहाँ दाष आदिक फल सार । अरनि विष उपज अधिकार ॥ चंपक फूल्या लोंग असोक । तिलक कुसुम मोहै सब लोक ॥ कमल पराग मनोहर जहां । षटपद गुजत हरिषित तहां । क्रीड़ा हंस करें अधिकाय । पद पद ऊपर सोभै बाय ॥ देवी-मंदिर के वर्णन में वलि-वेदी के चित्र की सुस्पष्ट झलक है। प्रतिमा-वर्णन में बिम्ब एवं रंग-योजना का आभास मिलता है। नारी-रूप के चित्रण में कवि की कल्पना मनोहर है। उसमें उसके मांसल सौन्दर्य की झलक है । मानव के क्रिया-कलापों, मुद्रा एवं चेष्टाओं का वर्णन भी अनेक १. यशोधर चरित, संधि २ । देवी को थान दुष रासि । अस्व मांस जाके चहु पासि ॥ रुधिर तणी नदी सम बहै। जहाँ काक क्रीड़त दुष लहै । गिरधर पंषी आवै जहां। मांस सुवाद तण बसि तहां ।। चौ गिरदा सिर माला परी । नरक तणी भुव सम दुष भरी ।। बाजनि को अति ही जित सोर । कानि पर्यो सुणि जे नहीं सोर ॥ -यशोधर चरित, संधि १ । ३. वही, सधि १। ४. जाहि सरीर सुभा लषि के मनि हेम तब इस भांति उपाई। पावक में करि के परवेस उपाव करू तन कांति अघाई ॥ ऐसो विचार करो किन हाट कई हित बात कहौ किनिपाई। अम्रितदेवि कियौ सुभ पूरब ताते भई तनि रूप सुभाई ॥ X अम्रितमती के बैन कोकिल सुने लजाय तब बन मांहि जाय कानन ही में रही। उभय पयोधर चकोर देषि मुष चन्द, आनन्दता पाय भिन्नता भये कभु नहीं। -यशोधर चरित, पृष्ठ ८२ । X
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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