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________________ प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत १४१ आँसू बहाता है । सीता उसे निर्दोष ठहराकर वापस भेज देती है। जब वह अकेली रह जाती है तब उसकी विचित्र अवस्था को धोतित करने वाली ये पंक्तियाँ करुण रस का रूप लेकर काव्य में आ बैठी हैं : सीता फिरै चहूँ दिस बन में, नैक न करै असास । कबहू महा मोह अति पूरन, कबहू ग्यान विलास ॥ सीता करै विलाप, हा ! हा !! कर्म कहा भयो। जो निज पोते पाप, भोगे बिना न छूटिये ।। कबहुक दुष भरि रोय दे, कबहुक हाँसै कर्म । कबहु आरति ध्यानमय, कबहु सम्हारै धर्म ॥' इस स्थल की मर्मस्पशिता अनेक बातों पर निर्भर करती है। सर्वप्रथम सीता निर्दोषिणी है, दूसरे वह राजरानी है, तीसरे वह सगर्भा है, चौथे उसे बिना सूचना के सेनापति द्वारा राजमहलों से निकालकर वन में छुड़वा दिया गया है। ऐसी स्थिति में एक दुर्बल नारी हृदय का विचित्र मानसिक अवस्था को प्राप्त होना बहुत स्वाभाविक है । उसका विकल होकर छटपटाना, विवेक द्वारा मन को संतोष देना, भाग्य को कोसना, दुःख से रो देना, धर्म का स्मरण करना आदि आश्चर्य की वस्तु नहीं। इसी प्रकार राम के वन-गमन के अवसर का एक चित्र देखिये । इससे अधिक मर्मस्पर्शी स्थल और क्या हो सकता है कि राजमहलों में पलने वाले राम अपने पिता की आज्ञा-पालन के निमित्त मोह और आकर्षण की समस्त जंजीरों को तोड़कर अचानक ही एक लम्बे काल तक वनवास के लिए तत्पर हो जायें । राम तो इसके लिए सहर्ष तैयार हो गये, परन्तु माता क्या यह कह दे कि बेटा तुम बन जाओ । लेकिन माता की आज्ञा बिना राम वन जा भी कैसे सकते हैं ? इसलिए वे माता से आज्ञा मांगते हैं। माता यह सुनकर चित्रलिखी-सी रह जाती है । वह 'हाँ' नहीं कह सकती, वह 'ना' भी नहीं कह सकती । इस माँ के हृदय की वेदना की कोई थाह नहीं ले सकता जिसकी १. सीता चरित, पृष्ठ ६।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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