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________________ १३६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन को ऊब का भी अनुभव होता है। इस प्रकार वस्तु-बन्धान में कवि ने चाहे कितनी ही सतर्कता से काम लिया हो, किन्तु उसका संतुलित विकास एवं सम्यक् निर्वाह विधिपूर्वक नहीं हो सका है। कथानक की स्थूलता में मुख्य और अवांतर कथाओं में सुसंगति भी कम ही दिखायी पड़ती है। ___ उपर्युक्त काव्यों के अतिरिक्त कथा में पूर्वापर सम्बन्ध-निर्वाह के प्रयोजन से 'आदिनाथ वेलि' (भट्टारक धर्मचन्द्र), 'रत्नपाल रासो' (सुरचन्द), 'नेमिनाथ मंगल' (विनोदीलाल), 'सूआ बत्तीसी' (भैया भगवतीदास), 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण), 'नेमिब्याह' (विनोदीलाल), 'पंचेन्द्रिय संवाद' (भैया भगवतीदास), 'राजुल पच्चीसी' (विनोदीलाल), 'नेमि-राजुल बारहमासा' (विनोदीलाल), 'फूलमाल पच्चीसी' (विनोदीलाल), 'मधुबिन्दुक चौपई' (भैया भगवतीदास), 'नेमिचन्द्रिका' (मनरंगलाल), 'शीलकथा' (भारामल्ल), 'दर्शन कथा' (भारामल्ल), 'सप्तच्यसन चरित्र' (भारामल्ल), 'निशिभोजन त्याग कथा' (भारामल्ल) प्रभृति खण्डकाव्यपूर्ण सफल माने जा सकते है । इनकी कथावस्तु में विविध घटनाओं का सामंजस्य दिखायी देता है। इनमें अधिक प्रासंगिक कथाओं की भरती नहीं है । ऐसी कथाएँ थोड़ी हैं और वे मुख्य कथा से सम्बद्ध और उसे आगे बढ़ाने में समर्थ हैं । उदाहरण के लिए, 'शील कथा' में धनपाल सेठ के द्वारा एक पुरोहित के मणिमय हार को ठगने और उसके स्थान पर झूठी मणियों का हार देने की जो अन्तर्कथा आयी है, वह मुख्य कथा को गति देती है और काव्य के नायक सुखानन्द कुमार के चरित्रोत्कर्ष में सहायक बनती है । सेठ की पत्नी बार-बार उससे ऐसा न करने का विनम्र निवेदन करती है। परन्तु मूढ़मति छलिया सेठ .. जैसी जु मन में तुम विचारी, रंक तैसी ना करे । इस बात में कछु सार नाही, वृथा अपजस सिर परे । परधनसों धन कछू होत नाही, जो लिखी निज भाल में । सोही मिल भरतार मेरे, जो उदय है हाल में । यह बात जो कहूँ भूप सुन है, दंड दे है अधिक ही। अरु गांठहू की द्रव्य जैहै, मानि प्रिय मेरी कही । -शीलकथा, पृष्ठ ८ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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