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________________ परिचय और वर्गीकरण १२१ तथा महान् नहीं बन पाते। इनमें से प्रथम प्रकार के प्रबन्धकाव्यों को एकार्थकाव्य और दूसरों को खण्डकाव्य कहना उचित ही है ।" वस्तुतः एकार्थकाव्य प्रबन्धकाव्य का एक महत्त्वपूर्ण भेद है । वह एक ऐसा काव्यरूप है जो महाकाव्य के गुण - लक्षणों से पूर्णत: प्रतिबन्धित नहीं होता । वह महाकाव्य के कतिपय गुणों को समेटते हुए नायक के सम्पूर्ण जीवन का ( समग्र युग जीवन का नहीं) चित्र होता है। कभी-कभी उसमें महाकाव्य के समस्त लक्षण (बाह्य) भी मिल जाते हैं किन्तु उसकी अन्तरात्मा में महाकाव्य का अभाव होने के कारण उसमें केवल महाकाव्याभास ही दृष्टिगोचर होता है । आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में 'यशोधर चरित', 'यशोधर चरित चोपई', 'सीता चरित', 'श्र ेणिक चरित' प्रभृति प्रमुख एकार्थकाव्य हैं । इन रचनाओं में महाकाव्य के कतिपय गुण - लक्षण उपलब्ध हैं । इनमें नायक के सम्पूर्ण जीवन का चित्र साकार हुआ है । चतुर्वर्ग फलों में से किसी एक प्रयोजन की सिद्धि ही इनका लक्ष्य है । कथावस्तु कहीं सर्गबद्ध और कहीं असर्गबद्ध है । अनेक स्थलों पर धर्म या दर्शन के तत्त्वों का समावेश है । खण्डकाव्य खण्डकाव्य प्रबन्धकाव्य का ही एक ऐसा रूप है जिसमें जीवन का खण्ड रूप ही चित्रित होता है । इसके स्वरूप निर्धारण का प्रयास संस्कृत साहित्य में हमें रुद्र से प्राप्त होता है । रुद्रट ने प्रबन्धकाव्य के 'महत्' और 'लघु' दो उपभेद किये ।' उनका यह 'लघु' काव्य रूप प्रकारान्तर से खण्डकाव्य ही हो सकता है, यद्यपि स्वतन्त्र रूप से उन्होंने ' खण्डकाव्य' का नामोल्लेख नहीं किया है । सर्वप्रथम विश्वनाथ कविराज ने प्रबन्धकाव्य के तीन भेद १. २. हिन्दी साहित्य कोश, पृष्ठ २४७ ॥ काव्यालंकार, १६ । ५ : ६ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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