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________________ परिचय और वर्गीकरण १०३ पुराणान्त प्रबन्धों का बड़ा महत्त्व है। पुराख्यान वे हैं। उनमें धार्मिकता के परिवेश में इतिहास की झलक प्रतिबिम्बित है; प्राचीन संस्कृति एवं सामाजिक अवस्थाओं का चित्रण है; कथा-काव्य की रोचकता सुरक्षित है; नायक के चरित्र का उत्कर्ष दिखलाने के लिए उसकी पूर्व भवावलियों का वर्णन है; और उनमें अधिकांश वे गुण-धर्म पाये जाते हैं जो प्रबन्धकाव्य के लिए अपेक्षित हैं। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन काव्यों के अन्त में 'पुराण' शब्द क्यों रखा गया ? इसके सम्भावित कारण ये हो सकते हैं : (१) इस धर्मप्राण देश में पुराण जनसाधारण की आस्था के प्रतीक और धर्म तथा संस्कृति के आधारस्तम्भ रहे हैं। (२) प्रबन्धकाव्यों के आख्यान-स्रोत जैन पुराणों से ग्रहण किये गये हैं। (३) पूर्ववर्ती जैन साहित्य में पुराण नामान्त बहुत से काव्य मिलते हैं । आलोच्यकालीन जैन कवियों ने उन काव्यों के अनुकरण पर ये काव्य रचे हैं। (४) पुराणों में कथात्मक एवं उपदेशात्मक अंशों की प्रचुरता होती है । पुराण संज्ञक काव्यों में भी यही उपलब्ध होता है । इस कोटि की प्रायः प्रत्येक रचना में अन्तिम सर्ग का विधान महापुरुषों के उपदेश के लिये होता है। पुराण नामान्त काव्यों के नामकरण के कारण जो भी रहे हों, यह अवश्य है कि उनमें वर्णनात्मक स्थलों, धार्मिक तत्त्वों एवं प्रासंगिक कथाओं की अधिकता है । वे प्राय: चरितकाव्यों से साम्य रखते हैं। अन्तर केवल इतना है कि चरितकाव्यों की अपेक्षा उन में लम्बे-लम्बे वर्णनों, धार्मिक उपदेशों एवं कथात्मक जटिलताओं का अधिक विनिवेश है, जैसे-पावपुराण में । रास-रासो नामान्त ___ 'रास' या 'रासो' संज्ञक रचनाएं प्रायः गेय हैं और इनमें राग-रागिनियों के आधार पर देशियों एवं ढालों की विपुलता है । वास्तव में ये रचनाएं
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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