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________________ उसका प्रथम कारण तो जैनियों का अपने ग्रंथों का छिपाए रखना है। अन्य धर्मियों द्वारा जैन ग्रंथों को नष्ट कर देने के प्रातका ने जैनों के हृदयों को अत्यन्त भयभीत बना दिया था और परिस्थिति के परिवर्तित हो जाने पर भी ह्रदयों में जमी हुई पूर्व आशंका से वे अपने ग्रन्थों को बाहर नहीं निकाल सके और न सर्व साधारण के सन्मुख पहुँचा सके। जब से देश में छापे का प्रचार हुआ तब से जैन समाज को भय हुआ कि कही हमारे ग्रन्थ भी न छपने लगे और उन्न जी जान से उन्हें न छपने देने का प्रयत्न किया इधर कुछ नवीन विद्वानां पर नया प्रकाश पड़ा और उन्होंने जैन ग्रन्थों के छपाने का प्रयन किया जिसके फल स्वरूप जैन ग्रंथ छपने लगे ऐसी दशा में जव कि स्वयं जनों को ही जैन साहित्य सुगमता से मिलने का उपाय नहीं था तव सर्व साधारण के निकट तो वह प्रकट ही कैसे हो सकता था। दूसरा कारण जैन धर्म के प्रति सर्व साधारण का उपेक्षा भाव तथा विद्वप है! अनेक विद्वान भी नास्तिक और वेद विरोधी आदि समझकर जैन साहित्य के प्रति अरुचि या विरक्ति का भाव रखते हैं और अधिकांश विद्वानों को तो यह भी मालूम नहीं कि हिन्दी में जैन धर्म का साहित्य भी है और वह कुछ महत्व रखता है। ऐसी दशा में जैन साहित्य अप्रकट रहा और लोग उससे अनभिज्ञ रहे। जैन समाज के विद्वानों की अरुचि या उपेक्षा दृष्टि भी हिन्दी जैन साहित्य के अप्रकट रहने में कारण है। उचश्रेणो' के अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों की तो इस ओर रुचि ही नहीं है। उन्हें तो इस बात का विश्वास ही नहीं कि हिन्दी में भी उनके सोचने और विचारने की कोई चीज मिल सकती है। शेप रहे
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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