SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ प्राचीन हिन्दी जैन कवि -- - ---- ---- wwwranaamanawwww ---wo- vuAK कवि के मानस में काव्य का स्वाभाविक उद्गम था उन्हें उसके लिए किसी तरह के प्रयास करने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। कभी २ भावावेश में वह विशेष रूप से छलक उठा था अन्यथा वह निरंतर ही स्वाभाविक गति से लहराता हुआ चला है। कविवर के काव्य में उनके विचारों और अनुभवों का आसव है उनका काव्य प्रेम, आत्मिक-तृप्ति और आत्म-संतोष के लिए ही था किसी प्रकार के स्वार्थ साधन की कलुपित कामना उसमें नहीं थी। उन्होंने किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए अथवा प्रशंसा के लिए काव्य की रचना नहीं की थी। काव्य के द्वारा उन्हें किसी प्रकार के यश अथवा वैभव' की भी आकांक्षा नहीं थी। यदि वे चाहते तो अपनी काव्य-कला के द्वारा बादशाहों तथा राजाओं को प्रसन्नकर वैभवशाली बनकर किसी सम्मान पूर्ण पद पर प्रतिष्ठित हो सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं चाहा। इसीलिए उनका काव्य सर्वथा निर्दोष, पवित्र और उच्च भावनाओं से पूर्ण रहा है। वे काव्य में स्वयं तन्मय हो गए हैं आत्म अनुभूति में गहरे डूबकर उन्होंने संतोष और तृप्ति की साधना की है उनका चरम लक्ष्य केवल आत्म अनुभव और लोक सेवा भाव रहा है यही कारण है कि उनके काव्य में आत्मोद्धार और आत्म परिचय की स्पष्ट झांकी दृष्टिगत होती है। अनेक गाहस्थिक कठिनाइयों के समय भी वे अपने काव्य प्रेम का मोह नहीं त्याग सके और विपत्ति के समय भी काव्य के साथ विनोद करना वे नहीं भूले हैं। यद्यपि यौवन के उन्मत्त प्रसङ्ग में उनका मन वासनाओं और श्रृंगार की उपासना की ओर आकर्षित हुआ था और उस
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy