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________________ प्राचीन हिन्दी जैन कवि लज्जाशील है. कि अपने विषय में किसी प्रकार की याचना करना तो दूर रहा परन्तु वे एक शब्द भी नहीं कहेंगे । इस समय उनका मन स्थिर हो रहा है यदि तू कुछ आर्थिक सहायता दे तो वे कुछ व्यवसाय करने लगें । धन्य पतित्रते ! पुत्री के हृदय के दुःख का अनुभव कर माता ने आश्वासन देते हुए कहा:बेटी ! निराश मत हो, मेरे पास ये २००) हैं ये मैं तुझे देती हूँ इससे वे गरे जाकर व्यापार कर सकेंगे । धन्य जननी ! २२ d रात्रि को दंपति का पुनः समागम हुआ पतिपरायणा साध्वी ने कोकिल कंठ से प्रेम भरे शब्दों में पति से प्रार्थना की । 'नाथ ! आप एक बार फिर उद्योग कीजिए अबकी बार आप अवश्य ही सफल होंगे। मैं दो सौ रुपया और भी आपको देवी हूँ आप इन्हें ले जाइए और व्यापार में लगाइए ! ' कविवर अपनी पुण्यवती पत्नी की इस अपूर्व भक्ति को देखकर विमुग्ध हो गए। उनसे कुछ भी नहीं कहा गया । किन्तु अपनी इस पति प्रारणा पत्नी के सुख को वे अधिक समय तक नहीं देख सके । एक समय जब वे व्यापार कार्य में विदेश की यात्रा कर रहे थे उसी समय एक व्यक्ति ने उनकी इस सुशीला पत्नी के निधन का संवाद उन्हें सुनाया । इस बज्राघात से उनके शोक का ठिकाना न रहा भरने की तरह उनके नेत्रों से सूत्रों की धारा बहने लगीं। अपनी सुयोग्य सहधर्मिणी के लौकिक गुणों और भक्ति भावों के स्मरण से उनके हृदय की विचित्र ही दशा हो गई। उनका हृदय फटने लगा वे विलाप करते हुए कह उठे । हाय ! जिसने मुझे संतोपित करने के लिए अपने जीवन की किंचित् भी चिन्ता नहीं की अन्त समय में उसका दर्शन भी न कर सका । उससे प्रेम भरी एक बात भी न कर .
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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