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________________ कविवर बनारसीदास HINAARI - चारों नग्न होकर कोठरी में फिरते और अपने आपको मुनि सिद्ध करते इस अवस्था में आप कई मास तक रहे एक समय सौभाग्य से आपको पांडे रूपचंदजी का सत्संग प्राप्त हो गया उनके सहयोग से आपने गोमट्टसार आदि सिद्धांत के उच्च ग्रंथों का अध्ययन किया और ज्ञान तथा क्रिया का विधान भली भाँति समझा। इसके पढ़ने से उनके हृदय कपाट खुल गए। और आचरणों तथा ज्ञान दोनों की महत्ता मानने लगे। सद् आचरणों और धार्मिक क्रियाओं के लिए. उनके हृदय में पुनः स्थान प्राप्त हो गया आध्यात्मिकता के साथ ही वे क्रियाओं का भी पालन करने लगे और अपनी पिछली अवस्थाओं पर उन्होंने खेद प्रगट किया। उन्नति के व्यापार काय देकर दो बीस पन्ना, का कपडा तथा व्यापार कार्य हृदय परिवर्तन होते ही उनका ध्यान उद्योग और आर्थिक उन्नति की ओर गया। उन्होंने व्यापार की ओर ध्यान आकर्षित. किया वे व्यापार कार्य में कुशल नहीं थे। पिता जी ने उन्हें व्यापार संबंधी कुछ शिक्षाएं देकर दो हीरे की अंगूठिएँ, चौवीस माणिक, चौतीस मणि, नौ नीलम, बीस पन्ना, चार गांठ फुटकर चुन्नी, २ मन घी, दो कुप्पे तेल, दो सौ रुपये का कपड़ा तथा कुछ नकद रुपये. देकर व्यापार के लिए आगरा जाने की आज्ञा दी। - बनारसीदास जी यह सव सामान लेकर आगरा पहुंचे। आगरा आकर उन्होंने घी, तेल और कपड़ा घेचा परन्तु उसमें उन्हें कुछ भी. लाभ नहीं हुआ उसकी वेच का समस्त रुपया' हुंडी. द्वारा घर भेजकर उन्होंने जवाहरात बेचने का उद्योग किया।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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