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________________ भैया भगवतीदास १५१ जिस तरह चन्द्रमा को, राहु ग्रस लेता है अथवा जब अंधकार का बल बढ़ जाता है तब वह किरणों की प्रकाश शक्ति को नष्ट कर देता है उसी तरह तुम पर भी कर्म का फंदा पड़ जाने के कारण तुम्हें अपना पराया कुछ भी नहीं सूझता। हे चैतन्य ! अब तुम संशय को छोड़कर अपने आप को देखो। यह शरीर जड़ है और तुम संपूर्ण गुणों से भरे हुए शुद्ध चैतन्य आत्मा हो। हे तोते ! तूने श्राम के धोखे में पड़कर सेमर का वृक्ष सेया इसमें इसमें तुझे क्या स्वाद मिला । सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ । आये धोखे श्राम के, यापै पूरण इच्छ । यापै पूरण इच्छ, वृच्छ को भेद न जान्यो। रहे विषय लपटाय, मुग्धमति भरम भुलान्यो। फल माँहि निकले तूल, स्वाद पुन कळू न हूत्रा। यहै जगत की रीति देखि, सेमर सम सूवा ॥ हे तोते ! तेरी सारी होशियारी चली गई। तूने सेमर के वृक्ष की सेवा की। आम के धोखे में आकर तूने अपनी संपूर्ण इच्छाएं उसीसे सफल करना चाही हैं। अरे! तूने वृक्ष का भेद न जाना । विषय सुख में फँसकर हे मूर्ख! तू भ्रम में भूल गया। धोखे में फंस गया। अंत में फलों में से रुई निकली और कुछ भी रस नहीं मिला। हे चैतन्य रूपी तोते इस संसार की रीति भी सेमर के वृक्ष की तरह है उसे तू देख और समझ। इसमें तुमे कुछ भी. रस नहीं मिल सकता।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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