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________________ umornanan रहा था जब उस राज्य का सुखा का दिग्दर्शन कर रहे हो । भैया भगवतीदास १४३ Minummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मोह उसका सेनापति है क्रोध कोतवाल है और लोभ मंत्री है जो उसे सदा से ही लूट रहा है। कर्म का उदय रूपी काजी है मान उसका अर्दली बना है कामदेव उसका मुन्शी बनकर रहता है। इस तरह की राजधानी में रहकर वह अपने गुणों को भूल रहा था जब उसे अपना ध्यान आया तब उसने ज्ञान को ग्रहण किया और आत्म राज्य का सुख भोगने लगा। सुमति रानी चैतन्य की अज्ञानता का दिग्दर्शन कराती हुई उसे संबोधित करती हुई कहती है कि हे चैतन्य राजा तुम कहाँ जा रहे हो। ज्ञान प्रान तेरे ताहि नेरे तो न जानत हो, श्रान प्रान मानि भान रूप मान रहे हो। श्रातम के वंश को न अंश कहूं खुल्यो कीजे, पुग्गल के वंश सेती लागि लहलहे हो। पुग्गल के हारे हार पुग्गल की जीते जीत, पुग्गल की प्रीति संग कैसे वह वहे हो। लागत हो धाय धाय, लागे न कळू उपाय, सुनो चिदानंद राय कौन पंथ गहे हो। तू अपने भीतर अपने ज्ञान रूपी प्राणों को नहीं देखता और दूसरे इन्द्रिय और शरीर रून गुणों को अपना मानकर उसी में मग्न हो रहा है। आत्मा के वंश का शक्ति रूप जो अंश है उसे तो तू प्रकाशित नहीं करता है और पुद्गल (शरीर) के वंश से लिपटकर खुश हो रहा है। तू शरीर के हारने पर हार और और जीतने पर जीत समझता है अरे भाई चैतन्य ! इसी तरह पुद्गल की प्रीति के साथ कैसे वहा जाता है।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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