SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीता, सुग्रीव आदि के पूर्वश्व | ४६५ उत्तर था का' विवेकपूर्वकमा रावण ने नाले बाँधकर पूछा किन्तु विभीषण -आयु के अन्तिम समय में तुम निःसंग होकर दीक्षित भी होगे और मुक्त भी। राम का संशय केवली के वचनों से मिट गया। किन्तु विभीषण को जिज्ञासा जाग्रत हुई। उसने अंजलि वाँधकर पूछा -सर्वज्ञ प्रभो ! रावण ने 'नहीं इच्छती परस्त्री का भोग न करने का' विवेकपूर्वक अभिग्रह लिया था और जीवन-पर्यन्त उसका पालन भी किया। फिर भी उसने पूर्वजन्म के किस कर्म के कारण सीता का हरण किया और प्राण दे दिये किन्तु सती को नहीं छोड़ा । लक्ष्मण ने उसे किस कर्म के कारण युद्ध में मारा। ये सुग्रीव, लवण, अंकुश और मैं-हम सवका श्रीराम से क्या पूर्व सम्बन्ध था ? इन सव वातों को जानने की जिज्ञासा मेरे हृदय में उठ रही है। इन सबसे अधिक जिज्ञासा इस बात की है कि सीता जैसी महासती का मिथ्या लोकापवाद क्यों हुआ? केवली जयभूपण ने कहा -हे विभीषण ! इन सव वातों का तुम लोगों के पूर्वजन्मों से सम्बन्ध है । तुम पूर्वभवों की कथा सुनो इस दक्षिण भरतार्द्ध के क्षेमपुर नगर में नयदत्त नाम का एक वणिक था। उसकी पत्नी सुनन्दा से धनदत्त और वसुदत्त दो पुत्र हए। उन दोनों का एक मित्र था ब्राह्मण याज्ञवल्क्य । उसी नगर में सागरदत्त नाम का एक दूसरा वणिक रहता था। उसका एक पुत्र था गुणधर और पुत्री थी गुणवती। वणिक सागरदत्त ने तो अपनी पुत्री गुणवती का विवाह नवदत्त के पुत्र धनदत्त के साथ निश्चित किया किन्तु गुणवती की माता रत्नप्रभा ने धन के लोभ से उसका विवाह गुप्त रीति से धनाढय सेठ श्रीकान्त के साथ कर दिया। यह समाचार याज्ञवल्क्य को जात हुआ तो वह इस वोखवाजी को न सह सका।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy