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________________ पिता-पुत्र का मिलन | ४५१ · वे दोनों इस प्रकार की बातें कर ही रहे थे कि विनीत शब्दों में , अंकुश ने लक्ष्मणजी से कहा -आपको देखकर हृदय प्रसन्न हो गया। रावण ने जो आपकी युद्धेच्छा पूरी नहीं की, उसे हम पूरी करने आये हैं। रावण का नाम सुनते ही राम-लक्ष्मण की मुख-मुद्रा कठोर हो गई । उनके हृदय में जो स्नेह भाव आया था, वह विलुप्त हो गया । उन्होंने तीक्ष्ण धनुष्टंकार किया। लवण-अंकुश यही तो चाहते थे। उन्होंने भी धनुष्टंकार का उत्तर धनुष्टंकार से ही दिया। कृतान्तवदन सारथी ने राम का रथ लवण के सम्मुख लाकर खड़ा कर दिया और विराध ने लक्ष्मण का रथ अंकुश के सामने । चारों वीर परस्पर यद्ध करने लगे । लवण-अंकुश तो अपना सम्बन्ध जानते थे इसलिए वचाकर शस्त्र प्रहार करते और राम-लक्ष्मण उनको लक्ष्य करके ही प्रहार करते । पुत्रों की इच्छा पिता और काका (चाचा) को तनिक सा पराक्रम दिखाने की ही थी जबकि राम-लक्ष्मण उनके प्राण लेने पर ही उतारू थे। उनका हनन और युद्ध का अन्त करने की इच्छा से राम अपने सारथि से बोले-रथ को विलकुल सामने रखो। . कृतान्त ने निराश स्वर में कहा -कैसे सामने रखू रथ को ? भीषण वाण-वर्षा से घोड़ों के शरीर छलनी हो गये हैं और रथ जर्जर। मेरी भुजाओं में लगाम खींचने तक की शक्ति नहीं रही । अप्रतिम योद्धा हैं यह प्रतिपक्षी कुमार ! . उसी के स्वर में स्वर में मिलाकर राम कहने लगे -हाँ सारथी ! मेरा वज्रावर्त धनुष भी शिथिल हो गया है । मूसलरत्न मानो च्यूटी को भी नहीं मार सकता, हलरत्न अव खेत जोतने के काविल भी नहीं रहा। शत्रुओं के लिए कालरूप इन दिव्यास्त्रों की शक्ति न जाने कहाँ विलीन हो गई। जिस प्रकार राम के दिव्य अस्त्र लवण के सम्मुख विफल हो गये
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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